पार साल घर गई थी
बचपन के गांँव से खूब मिली थी |
पूरे दस दिन रही थी
दिल की तमन्ना पूरी की थी |
आने की घड़ी पास आई
माँ ने कहा, “क्या ले जाओगी ? ”
मैंने कहा , “बस माँ ! कुछ नहीं
मुझे थोड़े-से जौ दे देना |
जौ, जो अपनी मिट्टी के हैं
अपने खेत-खलिहान के हैं |
जौ , जो तुम्हारे हाथ के बोए-छिंड़के हैं
तुम्हारे हाथ के सींचे हैं |
तुम्हारे हाथ के निराए-पिरोए हैं
स्नेहिल उंँगलियों से बीन कर सुधारे हैं |
मन की ऊष्मा से भिगोए-सँजोए हैं
हृदय की मधुरता से सूप भरे रखे हैं |”
सूत की पक्की थैली में
जौ भर कर माँ ने पकड़ाए |
बोली – “खूब ध्यान से रखना
कहीं एक दाना भी गिरने न पाए |”
जौ की कीमती थैली लेकर अपने घर लौट आई
फ्रिज़ के एक कोने में सुरक्षित-सी जगह बनाई |
बड़े ही जतन से थैली जमाई
न जाने कहांँ से वो जल-बूंँद आई |
गीली नमी से जो थैली भिगाई
यादों में मांँ आई ,आई रुलाई |
चौथे दिन देखती हूंँ , दंग रह जाती हूंँ
थैली के बाहर जाल-सा पाती हूंँ |
अंदर ही अंदर क्या हो रहा था !
जौ के हर कण में अंकुर पनप रहा था !
हरे -पीले रंग के धागे -से दिख रहे
नन्हे -नन्हे अंकुर अपने भाई से लिपट रहे |
अंतस की कालिमा को चीरते- से आ रहे
अंधकार भेद कर नव प्रकाश पा रहे |
मांँ के बहाने से मांँ के जौ बोलते हैं
पास आकर कहते हैं–“जीवट है तो ज़िंदा है |
मन से फौलाद बन ,पाताल चीरकर
जीवट को ज़िंदा रख ,असंभव को संभव कर |’’
मांँ के जौ कहते हैं–“प्राण हैं तो ज़िंदा है
प्राणों को ज़िंदा रख ,दुर्गम को सुगम कर |
आसमां में छेदकर,पर्वतों को भेदकर
नदियों को मोड़कर, शिलाओं को तोड़ दे |
कुछ भी अभेद्य नहीं, धरती धकेल दे
कुछ भी अगम्य नहीं, तारे भी तोड़ दे |”
कहना मान लेती हूंँ , ताकत समेटती हूंँ
जौ की हर बात को ध्यान में रखती हूँ —
“ प्राणों को ज़िंदा रख, जीवट को ज़िंदा रख’’
माँ की बात ,जौ की बात दोहराती रहती हूँ |


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