सूरज की पहली किरण के धरती पर पड़ने से पहले ही हमेशा की तरह माँ ने दरवाजे खोल दिए Iआँगन में जाकर देखा– मजेटी [मेहंदी] के पौधे गुलाबी फूलों के साथ मुस्कुरा रहे हैं I आँगन के सामने के खेत में अमरूद का पेड़ पहली बार फला है Iनए-नए पके अमरूद की खुशबू हवा में भीगकर दूर तक बहती चली जाती है Iअमरूद की ललक बच्चों को उन्मत्त कर देतीहै Iअभी-अभी तो हमने छोटे पेड़ों पर चढ़ना सीखा है Iक्या करें !ताऊ जी ने देख लिया तो बहुत गुस्सा करेंगे Iकिसी तरह दीदी ने उछलकर एक डाली नीचे की ओर खींची और दो अमरुद तोड़ लिेए Iचुपचाप एक अपने बस्ते में और एक मेरे बस्ते में रख दिया Iदीदी अमरूद,आम,टॉफी,चूरन आदि के मामले में कभी भी ईमानदार नहीं थी Iउसे कभी लगता ही नहीं था कि मेरी छोटी बहन को भी पूरा एक अमरुद मिलना चाहिए Iयह तो इसलिए हुआ ताकि मैं ताऊ जी से शिकायत न करूंँ I
खैर….धीरे-धीरे धूप खिल आई Iसूरज की किरणें आँगन में खेलने लगीं Iखेतों में, जंगलों में, दिशा-दिशा में सोना बिखरने लगा Iआँगन में खड़े होकर देखा तो दूर-दूर तक पसरी धान की हरियाली बिछी पड़ी है– ओस में भीगी ,ओस में लिपटी Iसूरज की किरणें ओस-बिंदुओं को जल्दी-जल्दी मोती की मालाओं की तरह अपनी झोली में समेट लेना चाहती हैं Iधान के पौधे अब मेरे घुटने- घुटने तक आने लगे हैं Iअचानक ही धानी खेतों के बीच कुछ हलचल-सी मालूम पड़ती है Iमैं और दीदी अपने आंँगन के छोर पर खड़े सुन रहे हैं Iचंदन और कांति अपने आँगन के छोर से सुन रहे हैं Iदूर कहीं घनी हरियाली के बीच से हिरन और हिरनियों की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं Iदिशा-दिशा गूंँज रही है Iपहाड़ियों के बीच उनकी अनुगूँज सब बच्चों में नया कौतूहल पैदा कर रही है Iआंँखें लगातार परिश्रम कर रही हैं Iखोज जारी है Iअपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं होनी चाहिए Iमैं एकदम से बोल उठी–” मैंने ढूंँढ लिया Iवह देखो दीदी !ताल वाले खेत के बीच में हिरन और हिरनी चर रहे हैं– अल्हड़,अलमस्त I”
ओ हो ! हो ! साथ में उनके दो बच्चे भी हैं Iकैसा मनोरम दृश्य है !कैसी अद्भुत छटा है !सघन हरीतिमा के बीच जैसे विद्युत-रेखा चमक रही हो Iलगता है किसी मूर्तिकार ने मृग-कुटुंब की स्वर्ण-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित कर दी हों Iचंचल हिरनी बार-बार कान लगाकर इधर-उधर देख रही है Iहिरन अपनी गर्दन ऊंँची कर दूर-दूर तक दृष्टि फेर आश्वस्त हो जाना चाहता है Iहिरण- शावक छाया की भांँति पास ही एक-एक कदम चल रहे हैं Iवे नन्हीं – नन्हीं कुलाचें भर रहे हैं– कभी मांँ के मुंँह के पास और कभी पिता के पैरों के पास Iदूर से लगता है जैसे स्वर्ण-रेखा लहरा रही हो Iहिरण के ज्योत्स्नामय अंग में स्वर्ण-पत्रों की-सी चित्रावली मंत्र-मुग्ध कर देती है और हिरनी का अंग चंद्रालेख से सजा हुआ मोहिनी-सी डाल देता है Iकोई अमर चित्रकार ही ऐसी कला का सृजन कर सकता है Iकला के ऐसे महिमामय चितेरे के प्रति मन श्रद्धा से झुक जाता है I
सौंदर्य से अभिभूत होकर हमने उन दोनों का नामकरण भी कर दिया– हिरण का नाम चंद्रमणि और हिरनी का चंदा Iसुबह की ताज़गी में चंद्रमणि और चंदा अपने शावकों के साथ खिली धूप का आनंद ले रहे थे Iचलते-चलते खेत के कोने में पहुंँचे ही थे कि दूर से किसी क्रूर के हाथों से भरभराता हुआ एक पत्थर आया और एक शावक को जा लगा Iफूल- से कोमल प्राणी ने वहीं पर आंँखें मूँद लीं Iफिर वह क्रूर अत्याचारी तुरंत ही उसे उठाकर घर ले गया I
दूसरे दिन सुबह चंद्रमणि और चंदा अपने शावक के साथ खेत के कोने की मेंड़ पर बैठे दिखाई दिए Iवे धान की हरियाली के बीच नहीं जाते थे iलगता था किसी भय से आतंकित हैं Iअपनी सूनी दुनिया में बेजान से पड़े हैं Iमृग -मृगी की आंँखों से आँसू की धार निकलकर सूख गई है Iशावक उछलना -कूदना भूल गया है Iबदहवास -सा इधर-उधर कुछ ढूंँढ रहा है Iमाँ से लिपट- लिपटकर न जाने क्या पूछ रहा है Iशायद यही कि “माँ !मेरा भाई कहाँ है ?दिखाई नहीं देता Iउसे जल्दी बुला दो Iमैं उसके साथ खेलूँ गा I”
याद आ रहा है Iमुझे बहुत कुछ याद आ रहा है Iमनुष्य पर जानवरों ने बहुत बार हमला किया Iलोगों को अपनी जान गंँवानी पड़ी iपरिवार सूने हो गए Iमाता-पिता के घर का उजाला चला गया Iयह स्थिति बेहद पीड़ादायी है Iमगर एक बात अच्छी है कि मनुष्यों को जब प्राण हानि होती है तो समाचार- पत्रों की दुनिया में हड़कंप मच जाता है Iमचे भी क्यों न ? अखबारों में खबरें छा जाती हैं Iसोशल मीडिया दिन- रात चौकन्ना होकर आवाज़ उठाता है Iउठानी ही चाहिए Iकहीं प्रशासन से अपील की जाती है तो कहीं प्रशासन का विरोध किया जाता है मगर आज जब चंद्रमणि और चंदा की बात आई तो सब चुप Iअखबार शांत हैं iसोशल मीडिया में कोई हलचल नहीं Iमनुष्य है कि बार-बार अपनी वाली पर उतर ही आता है–
अपने जन को खोने पर आवाज़ उठाओ I
दूसरे खोएंँ तो आवाज़ दबा दो I
आखिर मृगशावक को पत्थर क्यों मारा ?हिंसक उसे उठाकर अपने घर क्यों ले गया ?उसने उसका क्या किया ?सबको पता है Iसबको समझ में आता है Iछि ! धिक्कारहै !मनुष्य सारी उम्र अपनी संतान की सलामती की दुआ करता है Iफिर वही मनुष्य इन मासूम प्राणियों के लिए इतना कठोरहृदय कैसे हो जाता है ?
चंद्रमणि और चंदा के पास अपील के शब्द नहीं हैं Iआवाज उठाने के लिए शब्दों में पिरोई भाषा भी नहीं है मगर अपनों के खोने का वही दुख है,वही तड़प है Iअंतर्मन की पीड़ा भी वही है Iटूटना- बिखरना भी वही है Iकाश !मनुष्य इतनी- सी बात महसूस कर पाता !
प्रकृति की गोद में न जाने कितने ही चंद्रमणि और चंदा खुले आकाश तले विचरते रहते हैं Iनिरीह और मूक पशु -पक्षियों के रूप में उनके संगी – साथियों की हजारों जातियांँ हैं जो धरती पर जीवन के लिए संघर्ष कर रही हैं पर मनुष्य की भूख है कि शांत होने का नाम ही नहीं लेती I


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