उदय बचपन में अक्सर माँ से कहता – “माँ ! तुमने बिंदी लगा ली ?अब मुझे भी एक बिंदी लगा दो ना ।माँ ! तुमने काजल लगा लिया ?अब मुझे भी काजल लगा दो ना ।” “ ये लो तुम्हारी बिंदी और ये लो तुम्हारा काजल” कहकर माँ उदय को सजा देती ।उदय का मन खिल-खिल जाता ।
उदय बड़ा होकर स्कूल जाने लगा ।दस-बारह की उम्र में भी वह माँ के दुपट्टे से खेलता ।सुंदर रंग -बिरंगी चीज़ें इकट्ठा करता ।उसकी यह प्रवृत्ति सदा बनी रही ।
कॉलेज के दिनों की बात है ।उदय अपने माता -पिता के साथ डाइनिंग टेबल पर डिनर कर रहा था ।महानगरों की मशीनी ज़िंदगी में यही समय होता है जब पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाना खाता है और रोज़मर्रा के अहम फैसलों पर विचार करता है ।उदय ने कहा , “माँ ! यहाँ से मेरा कॉलेज बहुत दूर है ।आने जाने में बहुत समय नष्ट होता है ।मैं हॉस्टल जाना चाहता हूँ ।पापा से कहो ना कि मुझे हॉस्टल भेज दें ।” “तो पापा से तुम्हीं कह लो ।” “तुम कहो ना माँ ! प्लीज़ ।हफ़्ते -हफ़्ते तो आ ही जाऊँगा ।मेरी पढ़ाई भी अच्छे -से हो जाएगी और ड्रामा -थियेटर के लिए भी वक़्त मिल जाएगा ।” पिता ने हामी भर दी ।उदय के माता- पिता चाहते थे कि वह अपने पंख फैलाकर ऊँची उड़ान भरे और अपने सपनों को पूरा करे ।
उदय हॉस्टल चला गया ।कॉलेज की नियमित दिनचर्या आरंभ हुई ।सुबह कॉलेज जाता ।तीन बजे तक लगातार पढ़ाई ।उसके बाद ड्रामा -थियेटर ।वह एक ज़बरदस्त कलाकार था ।ड्रामा – थियेटर उसकी रूह में बसता था ।प्रैक्टिस करता तो खाने -पीने की भी सुध न रहती ।हर रोज़ शाम सात बजे हॉस्टल पहुँचता ।

अभी चार ही दिन हुए थे ।हॉस्टल पहुँचकर उदय ने हाथ -पैर धोए ।हल्के हरे रंग की निक्कर और गुलाबी टी-शर्ट पहन ली ।हल्का मेकअप किया और गले में एक लॉकेट डाल लिया ।लड़कों में कानाफूसी होने लगी ।आँखों ही आँखों में इशारे होने लगे ।उदय के कमरे में जाते ही कोई उसके सिर पर हाथ फेरता तो कोई उसकी गरदन अपनी ओर खींच लेता ।कोई उसके चेहरे को घूर -घूर कर देखता तो कोई उसके कपड़ों को छू -छू कर कहता – “अरे ! बड़ा सुंदर रंग है टी-शर्ट का ।मेकअप तो अच्छा कर लेते हो ।” दूसरा कहता – “गले में लॉकेट ! क्या कहने !” उदय हॉस्टल में लड़कों के मनोरंजन का साधन बन गया ।वह अपने मन की इच्छाओं को दबा लेता तो क्या होता ? सारा जीवन ही कुंठा में घुट -घुटकर ख़त्म हो जाता ।क्या उसे इतना भी हक़ नहीं कि नियति ने उसे जैसा बनाया ,वह वैसा बनकर रहे और वैसा ही व्यवहार करे ? और भी बहुत सारे सवाल हैं कि कुदरत ने उसे धरती पर भेजा लड़के के रूप में और उसे सोच दी कि वह लड़की है ।अब वह किस तरह की रुचि रखे ? है न टेढ़ा सवाल ? हँ ….इसके लिए भी दुनिया ही तय करेगी ।कौन नहीं जानता कि ये इच्छाएँ प्रकृति -प्रदत्त होती हैं ।ये कोई परीक्षा का प्रश्न -पत्र नहीं कि दो में से अपनी पसंद का कोई एक प्रश्न हल किया जाए ।कोई भी अपने आपको अपनी पसंद से लड़की या लड़का नहीं मान सकता है ।सब उसी का खेल है जिसने दुनिया में भेजा है ।इतनी -सी बात लोगों की समझ में क्यों नहीं आती ?
उदय अपनी रुचि की ज़िंदगी जीने लगा तो लड़कों को हँसी -ठिठोली का मौक़ा मिल गया ।लड़के शाम छह बजे से ही उदय के आने का इंतज़ार करते ।उसके आते ही उसे घेर लेते ।उसके सिर पर तबले की तरह आठ-दस हाथ टप-टप करके एक साथ पड़ जाते ।सब लड़के एक तरफ़ और उदय अकेला दूसरी तरफ़ ।
उदय दिनभर कॉलेज में पढ़ाई करता Iफिर लाइब्रेरी जाता और अपने प्रोजेक्ट पूरे करता I वह सारा दिन ऊर्जावान बना रहता Iउसके मुखमंडल पर उमंग और उत्साह की आभा चमकती रहती Iमगर शाम होते -होते वह रुआँसा हो जाता था ।हॉस्टल की याद से उसकी रूह सूख जाती ।वह कितनी शिद्दत से यहाँ अपना भविष्य बनाने आया था पर यहाँ तो उसकी ज़िंदगी ही दाँव पर लग गई ।मज़ाक -मज़ाक में छेड़ाखानी और उपहास ! मज़ाक -मज़ाक में ताने और फब्तियाँ ! वह बिलकुल अलग -थलग पड़ गया ।
कॉलेज में उसका एक प्यारा -सा दोस्त बना ।अमन नाम था उसका ।अभी हफ़्ता भर ही हुआ था ।अमन अपनी सीट पर बैठा हुआ उदय का इंतज़ार कर रहा था ।एक सीट भी उसके लिए बग़ल में रखी थी ।सब विद्यार्थी अपनी -अपनी सीट पर बैठे थे ।अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर कक्षा में आए और लेक्चर शुरू हो गया ।दो या तीन मिनट के बाद दरवाज़े से किसी की विनम्र आवाज़ सुनाई दी – “मे आइ कम इन सर ?” “यस कम इन ।” उदय अंदर आ गया ।उसके एक हाथ में भारी सूटकेस था और दूसरे हाथ में बैग ।वह अमन के बग़ल में बैठ गया ।अंतिम कक्षा समाप्त होने पर वह कॉलेज से निकला और सात बजे अपने घर पहुँचा ।अमन भी उसके साथ था ।आज दोनों ही ड्रामा -थियेटर के लिए नहीं रूके ।उदय ने बाहर से ही आवाज़ दी – “माँ ! मैं आ गया ।पापा ! मैं आ गया ।मैं हॉस्टल छोड़कर आ गया ।”
रात को डाइनिंग टेबल पर डिनर लगा ।चारों लोग बैठे ।इतने दिनों की बहुत सारी बातें हुईं ।
उदय – मैंने हॉस्टल छोड़कर अच्छा किया ना माँ ? मैंने अच्छा किया ना पापा ?
पापा – हाँ बेटे ! तुमने जो किया बहुत अच्छा किया ।
अमन – इसमें कोई श़क नहीं ।मगर मैं हॉस्टल में ,कॉलेज में , सारी दुनिया में सब जगह चीख-चीखकर एक बात कहना चाहता हूँ – “ चाहे कुछ भी हो ! दुनिया के हर व्यक्ति को बराबर का सम्मान मिलना चाहिए ।हर हाल में ,हर काल में यह नियम सार्वभौमिक होना चाहिए ।समूची सृष्टि में सदा से सदा के लिए अनिवार्य ।क़ानून में लिखा है या नहीं ,इससे फ़र्क नहीं पड़ता ।फ़र्क पड़ता है समाज के आचरण से ।समाज का ज़िंदा होना भी इसी बात पर निर्भर करता है ।”
बस फिर क्या था ! उदय का अंतस खिल गया ।उसका जीवन फिर से स्फूर्तिमान हो उठा ।हृदय में नव -तरंग जाग उठी ।फिर उसने माँ की चुन्नी ले ली ….फिर बिंदी ….फिर …. ।
पूरा घर खुशी की खनक में रोशन हुआ I माता -पिता का हृदय वात्सल्य की तरावट में भीग गया ।यही तरावट तो सब जगह चाहिए ।


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