वीर जब बोलना शुरू करता तो उसके हृदय की भाव -तरंगें उछाल मारकर सबको भिगो देतीं ।उसकी बातें सुनकर लगता मानो पूरे गाँव -इलाक़े की सैर पूरी कर ली ।उसने बोलना शुरू किया — “ मैं जो कहूँगा ,अपनी आँखों देखी कहूँगा ,कानों सुनी नहीं ।मैंने जो जिया,वही कहूँगा ,मन से गढ़ी हुई नहीं ।सुनती जाओ ।”
फिर वह अपनी कहानी सुनाने लगा —”मैं अपनी माँ और बड़े भाई के साथ गाँव में रहता था ।हमारा घर बहुत बड़ा था पर घर में हम तीन ही सदस्य रहते थे ।माँ दिन भर खेती के कामों में व्यस्त रहती ।इसलिए वहाँ के एकांत जीवन में किसी भी मनुष्य का आना ऐसा लगता जैसे विजन वन में विदेशी पक्षियों के आने से बहार आ गई हो ।भले ही वह चहचहाहट थोड़े ही दिन की होती पर अनायास ही सूना मन खिलखिलाहट से भर जाता ।नीरस जीवन में तरावट आ जाती ।
वर्षा की समाप्ति पर जब शरद ऋतु धीरे -से धरती पर उतरती ,धान -मक्के,बाजरे की फ़सल बटोरकर किसान साल भर के लिए अपने अन्न के भंडार भर लेता Iतभी शरद की सुहानी बयार में कहीं दूर से आती संगीत की मीठी धुन सुनाई पड़ती —टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰…… ।आते – जाते लोग कान लगा कर बातें करते —“भज्जू मिरासी अपना इकतारा बजाता हुआ हमारे गाँव में आ रहा है ।देवदार के वृक्षों की ढलान से वह धीरे-धीरे नीचे उतर रहा है ।देखो ! वह गाँव के खेतों को पार करता हुआ यहीं आ रहा है ।उसके इकतारे का संगीत साफ़ सुनाई दे रहा है —टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰ …… ।
फिर क्या ! हमारे आँगन में पास -पड़ोस के बच्चों की भीड़ इकट्ठा हो जाती ।इसी कौतूहल में कुछ बच्चे दौड़ -दौड़ कर गाँव के अंतिम छोर तक पहुँच जाते और भज्जू मिरासी के स्वागत में खड़े रहते ।भज्जू मिरासी इकतारे को बग़ल में लटकाए हुए अपनी धुन में मस्त होकर इकतारा बजाता और अपने मादक -मृदुल स्वर में गीत गाता ।
गाँव के बच्चों से घिरा हुआ वह जब तक हमारे घर के आँगन में पहुँचता तब तक मैं जल्दी -जल्दी उसके लिए मोस्टा (बाँस की चटाई )बिछा देता ।मारे उत्सुकता के दिल बल्लियों उछलता ।आनन फ़ानन में तय हो जाता कि यहाँ पर वह अपनी पोटली रखेगा और यहाँ पर गाँव भर से लाया हुआ अनाज रखेगा ।”
वीर की उत्सुकता अपने चरम पर थी ।वह लगातार बोलता चला जा रहा था —“ क्या ख़ूब समय था ! गाँव के बच्चों के बीच में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ जाती कि भज्जू मिरासी हमारे घर में ठहरेगा ।मैं भी अपने आप को गौरवशाली समझता था ।समझता कैसे नहीं भला ! एकान्त जीवन की जो मार मैं और मेरा बड़ा भाई झेल रहे थे उसकी पीड़ा भला दूसरे लोग क्या समझें ।सोलह कमरों का घर शाम के चार बजे से ही सन्नाटे की गोद में समा जाता और फिर अँधेरी रातों की चिर -शान्ति मन में हमेशा भय पैदा करती ।ऐसे में भज्जू मिरासी घर में आकर ठहरता तो लगता खुशियों की सौग़ात आ गई ।
सवेरा होते ही भज्जू मिरासी बग़ल में इकतारा लटकाए गाँव की ओर निकल पड़ता ।शरद ऋतु की केसरी धूप में इकतारे की ध्वनि सुखद हवा के झोंके के साथ दूर तक गूँजती — टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰ टिंड्॰……और भज्जू मिरासी का मीठा गीत वातावरण में मिसरी घोल जाता —
हिट रूपा बुरूसी को फूल बणी जूँला ।
चम -चम चमके हिमालय की चाँदी-सी बरफ ।
चाँदनी का रथ मा बैठी उड़ी -उड़ी जूँला ।
हिट रूपा …………..
भज्जू मिरासी घर-घर जाता ।अपने गीत के मीठे स्वर सजाता ।लोग संगीत की दुनिया में खो जाते ।कुछ पल के लिए मेहनतकश किसान को अपनी कठोर साधना से राहत मिल जाती और घर की वधूटी भी दो घड़ी के लिए आनंद -मग्न हो जाती ।गीत पूरा होने पर मालकिन अन्न के भंडार से धान -मक्का आदि निकालकर भज्जू मिरासी को दे देती और वह अपनी कमर में बँधी चादर में उसे बाँधकर इकतारे की धुन बिखेरता आगे निकल जाता ।साँझ होते ही वह हमारे घर आता और अपनी दिन भर की संपत्ति एक कोने में सजाकर मोस्टे पर बैठ जाता ।मैं बड़े जतन से चूल्हा जलाता ।धुआँ -धुआँ छोड़ती लकड़ियाँ बहुत परेशान करतीं ।मेरा बड़ा भाई सब्ज़ी बनाता ।फिर एक थाली को उल्टा रखकर पीतल के ग्लास से रोटी बेलता ।धुआँ लगी कच्ची-पकी रोटियाँ तैयार हो जातीं ।तब तक माँ खेतों से आ जाती ।हम माँ को खाना देते ।भज्जू मिरासी को खाना देते ।वह खाना खाकर सो जाता ।फिर अगले दिन की यात्रा में वही धुन ……वही संगीत ……वहीं मादकता …… ।
भज्जू मिरासी आठ-नौ दिन गाँव में घूमता ।गाँव की मिट्टी उसकी स्वर -लहरी में भीग जाती ।गाँव की हवा उसके इकतारे की ध्वनि से महक उठती ।आठ-नौ दिन में बहुत-सा अनाज इकट्ठा हो जाता ।न फ़ोन न चिट्ठी ! फिर भी कितनी अच्छी व्यवस्था ! नौ या दस दिन में भज्जू मिरासी की बेटी और बेटा हमारे घर आते और अपने अब्बू का इकट्ठा किया हुआ अनाज अपने घर ले जाते ।
आगे -आगे बच्चे अनाज सिर पर ले जाते हुए और पीछे -पीछे भज्जू मिरासी इकतारे की धुन के साथ गीत गाते हुए —
स्वर्ग तारा ।
जुनाली रात ।
को सुणलो यो मेरी बात ।
स्वर्ग तारा ।
आकाश में तारे टिमटिमा रहे हैं
चाँदनी रात है ।
अब इस समय मेरी बात कौन सुनेगा ?”
वीर ने अपनी बात समाप्त की ।
मैंने वीर से कहा -“भज्जू मिरासी ने अपने गीत में कहा — इस समय मेरी बात कौन सुनेगा ?आख़िर उसके मन में ऐसी कौन -सी पीड़ा थी ?” वीर की आँखों में उदासी घिर आयी ।भज्जू मिरासी के मन की व्यथा वीर की आँखों में तैर रही थी ।उसकी आँखें भर आयीं ।मानो कह रही हों —
गाँव ख़त्म हो रहे ,गाँव बचाओ ।
लोक-कला बचाओ ,लोक-संगीत बचाओ ।
साझा संस्कृति बचाओ ।
गाँव ख़त्म हो रहे,गाँव बचाओ ।
मिरासी समुदाय के लोग पारंपरिक गायक और नर्तक हैं ।इन्हें गीत -संगीत व नृत्य -कला का रखवाला माना जाता है ।इनका व्यवसाय लोक-मनोरंजन से जुड़ा है ।उत्तरांचल के पहाड़ी इलाकों में ये लोग रोंटी या दमाऊँ [ कटोरी जैसा वाद्य ] ,नगाड़े ,इकतारे आदि भी बनाते हैं ।वहाँ की लोक -परम्पराएँ ,गीत -संगीत व बोली उनके समाज में घुल-मिल गई हैं ।
भज्जू मिरासी नगाड़े ,रोंटी ,इकतारा आदि बनाया करता था ।अब उसकी अगली पीढ़ी के कुछ लोग शहरों में चले गए हैं।जो गाँवों में हैं वे विभिन्न प्रकार के काम -धंधों से जुड़े हैं ।हमारे कुल देवी -देवताओं के मंदिरों में पारंपरिक पूजा के समय लोक-वाद्य बजाए जाते हैं ।मंदिर के प्रांगण में वाद्य बजाने वाले एक पाँत में अपने- अपने स्थान पर विराजमान होते हैं ।मिरासी परिवार के कलाकार भी अपने नगाड़े – रोंटी लेकर बैठते हैं और फिर रण सिंघा बज उठता है ।रोंटी बज उठती है ।नगाड़े बज उठते हैं ।दिशा -दिशा गूँज उठती है ।
वीर ने बताया -“ हमारे कुल-देवता की सामूहिक पूजा में पहले भज्जू मिरासी ही नगाड़े बजाता था ।अब उसके भतीजे अब्दुल या महमूद आते हैं और नगाड़े बजाते हैं ।”
यही हमारी साझा संस्कृति की गरिमा है I
यही हमारी लोक-संस्कृति की गरिमा है ।


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