और लो देखते – देखते सावन भी आ गया ।सावन की फुहार के साथ ही वन -पर्वत धुल गए ,वनस्पतियाँ धुल गईं ।धरती का अंग -अंग खिल गया ।आकाश से गिरने वाली झड़ियाँ ऐसी लग रही हैं जैसे इन्द्रदेव ने चाँदी की जंजीरों के झूले डाल दिये हों और मेरा मन लंबी पेंग भरकर सीधे पहुँच जाता है मेरे बचपन के गाँव में ।मेरा गाँव —हिमालयी मिट्टी में रचा बसा ।हिमालयी वनस्पतियों व जड़ी -बूटियों की ख़ुशबू में सना हुआ ।और फिर हमारे बचपन की तो बात ही कुछ अलग थी ।हम अपने गाँव में न जाने कितने तीज-त्योहार मनाते थे और कितने मेले जाते थे ।
बच्चों को सावन की पहली तिथि का ख़ास इंतज़ार होता था ।इस दिन हिमालय के अंचल में बसे गाँवों में हरेला नाम का लोक पर्व मनाया जाता है ।हरेला पर्व धन- धान्यपूर्ण प्रकृति को समर्पित है। हरियाली का संदेश देने वाला यह पर्व हमारी धरती की सुख -समृद्धि का प्रतीक है ।हरेला पर्व से दस दिन पहले ही बच्चों में नया उल्लास दिखाई देता ।हरेला पर्व की तैयारी के लिए पूरे नौ दिन की साधना अनिवार्य थी ।ठीक दस दिन पहले हरे -हरे दोनों में हरेला बोया जाता ।घर के बड़े -बूढ़ों के साथ बच्चे भी छोटे-बड़े कामों में बढ़ -चढ़कर भाग लेते ।माँ कहती -“अरे ! सब लोग जल्दी -जल्दी नहा लो ।आज हरेला बोना है ।वर्षा की झड़ियाँ रुक जाएँ तो हरेला बोने के लिए साफ़ स्थानों में जाकर मिट्टी लानी है ।” हम आकाश की तरफ़ टकटकी लगाकर देखते कि कब बारिश बंद हो ।हाथी जैसे बड़े -बड़े बादलों को हवा पहाड़ी के पीछे ले जाती और हल्की धूप निकल आती ।हम सब ख़ुशी से उछल पड़ते ।हम माँ के साथ धान के खेतों की भीगी हरियाली को नापते हुए आगे निकल जाते और फिर झुरमुटों के बीच से होकर दूर मंदिर वाली पहाड़ी पर पहुँच जाते । “यहाँ की मिट्टी सबसे अच्छी होगी ।एकदम साफ़ -सुथरी ।है ना माँ ?” माँ पहाड़ी से मिट्टी खोदती हुई मुसकुरा देती ।हम भी अपना पार्ट बख़ूबी अदा करते ।छोटी -सी थैली में थोड़ी -सी मिट्टी भरते और घर ले आते । माँ मिट्टी को छान कर सूखने के लिए फैला देती और हम सब पहरा देते कि कहीं बारिश आ जाए तो तुरंत ही चिल्ला -चिल्लाकर घर के बड़ों को सूचना दे दें ।
आज के दिन ताऊजी के अपने कुछ ख़ास काम होते थे ।दोनों के लिए पत्तों का प्रबंध करना उनकी ज़िम्मेदारी थी ।जंगल से मालू (एक विशाल बेल) के पत्ते मँगवाए जाते या फिर गाँव से ही तिमिल (जंगली अंजीर) के पेड़ों से पत्ते तोड़ लिए जाते ।मालू और तिमिल का एक-एक पत्ता एक-एक थाली के बराबर होता ।हम ताऊजी को सींकें पकड़ाते जाते और ताऊजी शाम तक हरे -हरे दोने तैयार कर देते ।एक परिवार में जितने सदस्य होते उतने ही दोने बनते ।सबका एक -एक दोना ।
ओ कुदरत ! तुम हमारी कितनी अच्छी सहेली थी ! हर घड़ी हर पल हम साथ रहते थे ।हमारे पर्व और त्योहार तुमसे ही पूर्ण होते थे ।मगर आदमी ने तुमसे ही दगा कर दी ।
सूर्य अस्ताचल में डूबने को है ।सूर्य की किरणें आम -जामुन के पेड़ों से विदा हो रही हैं ।साँझ हो गई है ।हरेला बोने के लिए सब लोग मंदिर में बैठ गए हैं ।साँझ की पूजा करके बुआई की सारी सामग्री मंदिर वाले कमरे में रख दी गई है ।जौ ,धान ,मक्का ,तिल ,उड़द आदि सात प्रकार के अनाज एक थाली में मिलाकर रखे हैं । बच्चे और बड़े सब हरेला बो रहे हैं ।हरे -हरे दोनों में एक तह मिट्टी की और एक तह अनाज की कई बार लगायी जाती है ।रोली ,अक्षत -चंदन से दोनों का शृंगार होता है ।धूप-अगरबत्ती की सुगंध हवा में घुल जाती है । हरेले को सूरज की किरणों से बचाने के लिए घर या मंदिर के कोने में ही रखा जाता है ।
अगली सुबह से ही बच्चों की पक्की ड्यूटी होती है ।सुबह जल्दी उठकर नहाना है और फिर दोनों में हलके -हलके पानी छिंड़कना है ।ऐसे समय में बच्चों की कर्तव्यनिष्ठा अपने चरम पर होती है ।नौ दिन तक कठिन साधना करनी है ।उनका उत्साह देखते ही बनता है ।आते-जाते रास्तों में बस एक ही बात होती — “अरे बाप रे ! मेरा हरेला मेरे घुटने तक आ गया ।” “और मेरा मेरी कमर तक ।” “मेरा हरेला बहुत सुन्दर है एकदम पीले और धानी रंग का ।” ”और मेरा एकदम सुर्ख पीला ,ताजगी भरा ।”
नवें दिन सांध्य-पूजा के बाद हरेले की गुड़ाई की जाती है ।पाती (एक पौधा) की डंडियों से ही हरेला गोड़ा जाता है ।फिर रोली -अक्षत चढा़कर घी में सनी पाती के पत्तों की धूप दी जाती है ।पाती की गमक से हवा महक उठती है ।रात भर के कठिन इंतज़ार के बाद फिर आती है दसवें दिन की सुबह ।
हरेला
दसवें दिन की सुबह उमंग और उत्साह की सुबह होती है ।आज ही लोक -पर्व हरेला मनाया जाता है ।पेड़ -पौधे नहाए हुए हैं ।बच्चे -बूढ़े नहा-धो कर तैयार खड़े हैं ।कुल -देवता ,भूमि -देवता और गाँव के अन्य देवताओं के मंदिरों में हरेला भेजना है ।छोटे-छोटे बच्चे एक-एक दोना लिए चटपट चले जा रहे हैं ।रास्ते में बरसाती पानी की धाराएँ बह रही हैं ।बेड़ू व जामुनों के गिरने से पानी का रंग नीला -बैंगनी हो गया है ।बीच -बीच में बच्चे नहरों -गूलों के पानी में छप-छप पैर डुबो लेते हैं ।दोने पहुँचाने की यात्रा में मज़ा आ रहा है ।
आज कुल -देवता के मंदिर में चूल्हा जलेगा और रोट का प्रसाद बनेगा ।हर घर से रोट बनाने की सामग्री दी जाती है ।रोट सामान्य रोटी से दस गुना बड़ी होती है ।गुड़ के पाक में आटा गूँथकर देसी घी में तराबोर लाल -लाल सेंकी जाती है ।गाँव के सारे लोग मिलकर रोट बनाते हैं ।बच्चों का झुंड बेसब्री से प्रसाद का इंतज़ार करता है ।दोनों का हरेला काटा जाता है ।मंदिर में हरेला और प्रसाद चढ़ाने के बाद सब लोगों के मस्तक पर हरेला चढ़ाया जाता है और सबके लिए मंगल कामना की जाती है —
जी रया , जागि रया ।
यो दिन ,यो मास भेटनै रया ।
हिमालय में ह्यूँ छन तक,गंगा में पाणि छन तक ।
जी रया ,जागि रया ।
तुम जीते रहो ,जागरूक बने रहो ।
हरेले का यह दिन बार-बार आता रहे ।
जब तक हिमालय में हिम और गंगा में पानी है ,तब तक जियो ।
बच्चों का मेला प्रसाद प्राप्त कर अपने -अपने घरों को रवाना हो जाता है ।अब आती है द्वार -पूजन की बारी ।घर की चौखट पर गाय के गोबर के सहारे हरेला सजाया जाता है । दरवाज़ों में हरेला चढ़ाकर मंगल कामना की जाती है कि हमारी देहरी सदा समृद्ध रहे ।पशुशाला के द्वारों में भी हरेला चढ़ाया जाता है ।फिर भला पशु पीछे क्यों रहें ? वे तो हमारे रोज़ के संगी – साथी हैं ।उन्हें भी तो सावन की भरी पूरी हरियाली का आनंद लेना है ।हम उनके माथे और गले में धागे से हरेला बाँध देते हैं ।ऐसा लगता है जैसे सारे के सारे जानवर सावन के मेले जाने के लिए सजे हों ।
अब सबसे ख़ास बात ।माँ घर में हमारे आने की राह देखती ।माँ के हाथ की खीर ,पूड़ी,पुवे -बड़े खाकर ही असली त्योहार सम्पन्न होता !
वाह ! क्या बचपन था ! क्या दिन थे ! ओ क़ुदरत ! तुम और हम तो जैसे एक ही थे ।तुम से हम थे और हम से तुम थे ।मगर अब सब कुछ बदल गया ।आदमी की नीयत बदल गई ।
मन करता है फिर से पहाड़ी की मिट्टी लाऊँ ।पत्ते लाऊँ ।दोने बनाऊँ ।ओ क़ुदरत ! मन करता है फिर से बीज बोऊँ ।पानी छिड़कूँ ।तुम्हें हरा -भरा देखूँ ।तुम्हें सर -माथे से लगाऊँ ।सावन के हरेले को जी भर मनाऊँ ।मन करता है फिर से…………


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