मेरी खिड़की का कैनवस

मेरे घर की खिड़की पे पानी सा-शीशा है
पानी-सा शीशा कैनवस बन जाता है ।
क़ुदरत के रंग और मौसम की रंगत
ख़ुद में उतारकर अद्भुत बन जाता है ।

खिड़की के कैनवस पर शाखें इतरातीं
नए रूप-रंग चित्रकारी दिखातीं ।
पेड़ों के झुरमुटों को हवा पंख देती
हिलाकर झुला कर चुपचाप सरक लेती ।

जब आया पतझड़ तो पत्तियाँ सोना बनीं
धूप में तपी हुईं ,सुनहरी पकी हुईं ।
तेज हवा चल रही ,डालियाँ हिला रही
सनसनाती खिलखिलाती ध्वनियाँ सुना रही ।

लाख कोशिश कर चुकी पर पत्तियाँ गिरती नहीं
जुड़ी हुई शाख से अलग अब होती नहीं ।
पीली-पीली पत्तियाँ घुँघरू बजा रहीं
नाच रहीं ,गा रहीं ,झुनझुने बजा रहीं ।

महीना भर हो गया ,पतझड़ चला गया
खिड़की के कैनवस पर नया रंग छा गया ।
बिना स्वर्ण-पत्रों के तरुवर खड़े-खड़े
टहनियों की उँगलियों से वीणा बजा रहे ।

आपस में गले मिल तार-तार हिल रहे
झूम-झूम मस्ती में झंकार कर रहे ।
मैं भी रोज़ पगली-सी शीशा निहारती
कौन-सी कला सजी है आज ? दृष्टि फेरती ।

और तभी देखती चित्रकार आ रहा
लाल-हरे किसलयों से आँचल सजा रहा ।
तरुवर की डालियों में जीवन समा रहा
सरसराता मंद पवन मृदुल धुन बजा रहा ।

ये जो चित्रकार है ,अमर कलाकार है
ज़िंदगी की खिड़की का असल सृजनहार है ।
रंग की दवात लिए मुसकुराता आ रहा
नयी -नयी तूलिका से कैनवस सजा रहा ।

ओ मेरे चित्रकार !तेरा सृजन है अपार
जीवन के दर्पण पर नए रंग तू उतार ।
पतझड़ भी आए तो खिलखिलाएँ बेशुमार
गीत गुनगुनाएँ सदा वीणा के छेड़ तार ।

जीवन के कैनवस की यही चित्रकारी है
कभी शुष्क पन्ने तो कभी मनोहारी हैं ।
कभी सरस कभी मधुर कभी तपन भारी है
मधु-रस के गागर की आती फिर बारी है ।

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