आज चैत्र मास की पहली तिथि है और मन विराट प्रकृति के विस्तार में लीन हो जाना चाहता है। बचपन की यादों का सिलसिला स्मृति-पटल पर छा-सा गया है। मैं हिमालय के आँगन में बसे अपने गाँव की ओर खिंची चली जा रही हूँ जहाँ आज के दिन हम फूल धेई नाम का पर्व मनाते थे। वसंत की बहार और धरती फूलों के अपार सौंदर्य से सजी हुई। वन-पर्वत,खेत-खलिहान,बाग़-बग़ीचे — सब वसंत के अल्हड़ यौवन से समृद्ध। खेतों में फैली सरसों की पीली चूनर और वन -वाटिकाओं में रंग-बिरंगे अनगिनत फूलों की ख़ुशबू समेटे मदमस्त हवा।
इन्हीं फूलों से सम्पन्न होता है फूलधेई का लोक-पर्व। फूल धेई का अर्थ है —फूलों से सजी हुई देहरी यानी द्वार। आज के दिन सब बच्चे-बच्चियाँ मिलकर सारे गाँव के घरों की देहरी पर फूल-चावल चढ़ाते थे। श्रद्धापूर्वक माथा टेकते थे और देहरी-पूजन करते थे। होली का त्योहार समाप्त होते ही हम फूलधेई का इंतज़ार करने लगते। हफ़्ता पहले से ही घरों में तैयारी शुरू हो जाती। बाज़ार से नया कपड़ा आता। माँ हम सब के लिएअपने हाथों से नए फ़्रॉक सिलती। नई शर्ट सिलती। फूलधेई का पहला दिन तो हमारे लिए फूलधेई से भी ख़ास होता। एकदम रंग-बिरंगा,चमकीला,खिलखिलाहट भरा ! माँ सब भाई-बहनों के लिए पुराने से पुराने कपड़े ढूँढ कर रख लेती। सबके लिए छोटी -छोटी टोकरियों का प्रबंध भी कर देती। फूलधेई के पहले दिन हम दोपहर का खाना जल्दी खाकर पुराने कपड़े पहन लेते। माँ सबके हाथों में एक-एक टोकरी थमा देती और हम पास-पड़ोस के सभी बच्चों के साथ झुंड बनाकर फूल तोड़ने निकल पड़ते।
“ मेरी टोकरी ज़्यादा बड़ी है। मेरी सबसे सुंदर है। मैं सबसे ज़्यादा फूल तोड़ूँगा। मैं अपनी टोकरी अच्छे से सजाऊँगी।” इसी चहल-पहल के साथ सब बच्चे नहरों,ताल-तलय्यों और गूलों के किनारे पहुँच जाते। फूलों की चाह हमें छोटी-छोटी नदियों तक भी ले जाती। तब न जानवरों का डर मन में कभी उपजा था न इंसानों का। सच्चाई तो यह है कि डर था ही नहीं। काश ! आज का बचपन भी वैसा हो पाता !
हम नदी-गूलों के आस-पास के जंगलों से फ्यूंली,बुरांश,बासिंग,कचनार ,हजारी आदि के फूल चुन-चुनकर जल्दी-जल्दी अपनी टोकरी भरते। धौल और कुंज के लाल-सफेद दुर्लभ फूलों से अपनी टोकरी सजाने की जो ललक दिल में उठती थी उसके लिए कँटीली झाड़ियों के अंदर तक चले जाते और जब चार फूल टोकरी में जो सज गए तो लगता जैसे दुनिया की दौलत पा ली। नदी की घाटी के एकांत में जल-धारा के मीठे स्वर में स्वर मिलाकर अपने साथियों को आवाज़ देते — “ ओ गौरी ! तुम कहाँ हो ? कितने फूल चुन लिए ? ओ जगत ! ओ हेमा ! टोकरी भर गई ? अरे कांति और चंदन ! कहाँ चले गए ?“ “हम नदी में पानी पीने गए हैं। मुँह-हाथ धो रहे हैं।” “ तो तुम्हारी टोकरी भर गई ?” “हाँ भर गई।” “तो चलो !अब घर चलते हैं। पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाएगी।”
चलने से पहले सब बच्चे आँवले के पेड़ के नीचे इकट्ठा हो जाते। सबके हाथ-पैर मिट्टी से सने हुए हैं मगर फूल कंडी सबने जतन से रखी है। अपनी फूलों की संपत्ति को पूरी सँभाल के साथ घर तक ले जाना है। घर पहुँचकर माँ को अपनी फूलों की टोकरी दिखाते। ताऊजी,ताईजी को दिखाते। फिर एक तखत पर हमें जगह दे दी जाती। वहाँ अपनी-अपनी कंडी रखकर एक गीले कपड़े से ढक देते। कहीं फूल मुरझा न जाएँ। कल सुबह फूल धेई है। अपने द्वार पूजकर सबकी देहरी का शृंगार करना है।
रात में माँ जल्दी सुला देती मगर आँखों में नींद कहाँ। मारे उत्सुकता के मन बल्लियों उछलता रहता। “दीदी ! तुम सो गईं ?” “नहीं , नींद नहीं आती। कहीं कान्ति और चंदन हम से पहले द्वार पूजने निकल पड़े तो ? ये तो गड़बड़ हो जाएगी। मन तो करता है कि अभी नहा लूँ। सुबह जल्दी-जल्दी नया फ्रॉक पहनकर सबसे पहले निकल जाऊँ।” इसी उत्सुकता में न जाने कब नींद आ जाती।
फूल धेई
अगले दिन सुबह जल्दी-जल्दी नहाते। माँ नए कपड़े पहनाकर रोली-चंदन का टीका लगाती और हमारे हाथों में फूलों की टोकरी थमा देती। हम सबसे पहले अपने घर की देहरी पर फूल-पत्र , चावल आदि चढ़ाते,माथा टेकते और फिर अग़ल-बग़ल में चाचा-ताऊ के घर के द्वार पूजकर निकल पड़ते गाँव की ओर। कितनी सुंदर यात्रा होती थी यह। बच्चों के खिलखिलाहट भरे चेहरे और हाथों में फूलों की टोकरियाँ। गाँव की छोटी-छोटी पगडंडियाँ और पैदल चलकर अपनी मंज़िल तय करने वाले नन्हे-से राहगीर। अपने छोटे-छोटे कदमों से अन्तहीन हरियाली को नापते चले जाते। जिसका भी घर पहले आता उसके द्वार पर फूल-पाती चढ़ाकर फूल धेई का गीत गाते —
फूल धेई छम्मा धेई
दैंणी द्वार भर भकार ……
अर्थात् यह देहरी फूलों से भरी हो। मंगलकारी हो। यह देहरी सबकी रक्षा करे। सबके घर अन्न के भंडार से भरे रहें।
फिर घर के बड़े-बुजुर्ग हमें बिठाकर हमारा स्वागत करते। हमें चावल-गुड़ और पैसे मिलते। फूल धेई के बहाने एक बात फूलों की ख़ुशबू की भाँति मेरे मन में बस गई है कि हमारा बचपन कितना अलग था। जीवन में सरलता और सादगी थी , बनावट नहीं। कायदे थे , क़ानून नहीं। सब बच्चे सबके घरों में जाते थे। सबके घरों की ख़ुशहाली और रिद्धि-सिद्धि की कामना करते थे। हम सदा ही उस बूढ़ी स्त्री के घर गए जो बहुत दूर गाँव के अंतिम छोर पर रहती थी। जहाँ से जंगल शुरू होता था। वह कहीं से भटक-भटक कर जंगल के रास्ते ही गाँव में आ गई। वहाँ उसे हमारे बुजुर्गों ने पनाह दे दी। ज़मीन का एक कोना दे दिया। मकान बनाने के बाद कुछ पत्थर बचे हुए थे। वे भी दे दिए। बूढ़ी ने उन्हीं पत्थरों को जोड़कर एक छोटा-सा घर बना लिया। फिर वह सारे गाँव के बच्चों की दादी बन गई। हम उस बूढ़े किसन राम और उसके इकलौते बेटे पिरमू (प्रेम) के घर सदा ही देहरी पूजने गए जिनका इस दुनिया में कोई नहीं था। जो मेहनत मज़दूरी करके अपनी बसर करते थे या फिर विपदा के दिनों में पूरा गाँव ही उनका आसरा होता था।
गाँव भर की यात्रा पूरी करके हम दोपहर को अपने घर पहुँचते। माँ पूड़ी ,पुवे ,खीर आदि बनाकर हमारा इंतज़ार करती। गाँव भर से मिले चावल और गुड़ हम माँ को दे देते और पैसे अपने पास रख लेते। रीति के अनुसार माँ किसी भी दिन चावल और गुड़ का साया (विशेष प्रकार का हलुआ) बनाती और हम सब प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करते।
फूल धेई के पर्व के बारे में एक लोक-कथा हिमालयी गाँवों में सुनने को मिलती है। कहा जाता है कि एक वन-कन्या थी। उसका नाम फ्यूंली था। जंगल की वनस्पतियाँ ,पेड़-पौधे उसका परिवार था। उसी की हँसी से जंगल हरा-भरा रहता था। उसी की मस्ती से नदी बहती थी। एक दिन एक राजकुमार आया और वन-कन्या को ब्याह ले गया। उसकी याद में पेड़-पौधे मुरझाने लगे। नदी सूख गई।फ्यूंली भी अपने संगी-साथियों की याद में बीमार रहने लगी। एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। उसकी इच्छा के अनुसार उसे उसी जंगल में मायके की मिट्टी में अग्नि दी गई। फिर वहाँ एक दिन एक सुंदर पीले रंग का फूल खिला। लोगों ने उसे एक प्यारा-सा नाम दिया —फ्यूंली। वन-कन्या के फूल के रूप में प्रकट होते ही पेड़-पौधे हरे-भरे हो गए। नदी लबालब भर गई। वन-जीवन लौट आया। इसी ख़ुशी में फ्यूंली तथा अन्य फूलों से देहरी पूजने की लोक-प्रथा शुरू हो गई।
लोक-कथा सच्ची है या नहीं , कहा नहीं जा सकता। पर इतना तो तय है कि ये लोककथाएँ लोक-जीवन का मंगल करती हैं। जीवन के वसंत में मधुरस का संचार करती हैं। तो दोस्तो ! चलो ! अपनी-अपनी टोकरियाँ उठाओ और निकल पड़ो फूल चुनने क़ुदरत की गोद में ….खुले आकाश तले खुलापन महसूस करेंगे….फूल चुनेंगे….गीत गाएँगे —
फूल धेई छम्मा धेई…………


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