विद्यालय में मुझे अगर कोई पीरियड सबसे अनोखा लगता है तो वह है पाँचवाँ पीरियड । क्योंकि वह हमेशा ब्रेक के बाद होता है । मॉर्निंग असेंबली के बाद तो बच्चे अपनी -अपनी लाइन में ही सीधे कक्षा में चले जाते हैं । इधर -उधर करने की गुंजाइश नहीं रहती । पाँचवाँ पीरियड तो जैसे बच्चों का भाग्य -विधाता हो । इस पीरियड ने कितने सारे रंग भरे हैं —बच्चों के जीवन में भी और अध्यापकों की अनुभव-यात्रा में भी । अध्यापक पाँचवें पीरियड में बच्चों से पूछते हैं—“देर से क्यों आए ?” बच्चों की अद्भुत कल्पना -शक्ति इसी पीरियड की देन है । वे उत्तर देते हैं —“ मेरा टिफ़िन छूट गया था ,उसे लेने चला गया । मेरा स्वेटर गुम हो गया था , उसे ढूँढने चला गया ।मेरे दोस्त के पेट में दर्द था । मैं उसे लेकर मैडिकल रूम गया था । मेरा पानी ख़त्म हो गया था । मैं पानी भर रहा था । मेरी कॉपी छूट गई थी । हिंदी की थी । आज ही जमा करनी थी इसी पीरियड में । मेरे दोस्त की पैंट फट गई थी । मैं सिलने में मदद कर रहा था ………..।” इन सब कामों के लिए कम से कम दस मिनट तो ज़रूर चाहिए ।
पाँचवाँ पीरियड शुरू हो चुका था । मैं सातवीं कक्षा में जाकर हिंदी पढ़ा रही थी । अभी पाठ पढ़ाते हुए दो-तीन मिनट ही हुए थे । जापान में पेड़ों पर चढ़ कर खेले जाने वाले खेल की दिलचस्प कहानी थी । बच्चे शांतिपूर्वक सुन रहे थे । तभी नवल तेज़ी से दरवाज़े पर आया और पूछने लगा , “मैम ! क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ? ” मैंने झुँझलाकर कहा , “आ जाओ । कल से समय पर आना ।” उसने “जी मैम” कहा और वह अपनी सीट पर जाकर बैठ गया । अग़ल बग़ल पूछ कर पता किया कि मैं क्या पढ़ा रही हूँ । फिर बैग से किताब निकालकर पाठ खोल लिया । कोई दो मिनट और निकल गए । खैर…. उसके बाद कक्षा में पढ़ाई यथावत चलती रही ।
अगले दिन फिर से मैं पाँचवें पीरियड में कक्षा में गई । मुझे पाठ पढ़ाते हुए तीन-चार मिनट ही हुए थे । बच्चे उत्सुकतापूर्वक सुन रहे थे । अचानक ही दरवाज़े से नवल की आवाज़ आयी —“मैम ! क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ?” “नहीं ” | “क्यों मैम ?” मैंने कहा ,“तुम कल भी देर से आए थे ?” “ जी मैम ।”और मैंने तुमसे कहा था कि कल से समय पर आना । “मैम ! एक बार मेरी बात तो सुन लीजिए । मेरी पानी की बॉटल नीचे मैदान में छूट गयी थी । उसे लेने चला गया था इसलिए देर हो गई ।” जब बच्चे देर से आते हैं तब कोई न कोई ऐसा कारण तो होता ही है और बच्चे मैम को बहुत ही सलीक़े से बताते भी हैं । मैंने उसकी बात सुनकर चुनौती दी—“ पर एक बात सुन लो ! कल से तुम हर हाल में मुझसे पहले कक्षा में आओगे । मुझे बाक़ी बच्चों की तरह अपनी सीट पर बैठे मिलोगे । सोच लो । अगर तुम ऐसा सच में कर पाओ तो अंदर आकर बैठ जाओ ।” नवल तुरंत ही तेज़ कदमों से जाकर अपनी सीट पर बैठ गया । शिद्दत तो ऐसे दिखा रहा था मानो कह रहा हो आज भूल हो गयी तो क्या हुआ । आगे थोड़ी कोई कभी ऐसी भूल करूँगा । ख़ैर मैं पाठ पढ़ाने लगी । कक्षा रोज़ की तरह चलती रही । जापान में पेड़ों पर चढ़ कर खेले जाने वाले खेल की रोचक कहानी थी । बच्चे उत्सुकता से पढ़ रहे थे ।
अगले दिन मैं नियमानुसार कक्षा में गई । आज सबसे पहले मेरी आँखों ने नवल को ढूँढना शुरू किया । पूरी कक्षा में नज़र घुमाई । नवल कक्षा में नहीं था । मैंने पाठ पढ़ाना शुरू किया । अभी चार-पाँच मिनट ही हुए थे कि नवल बहुत तेज़ी से दौड़ता हुआ दरवाज़े पर खड़ा हो गया । बहुत ही चुस्ती और फुर्ती के साथ बोला ,” मैम ! मे आइ कम इन ? ” मैंने “हाँ” या “न ” कुछ भी नहीं कहा । आज मुझे किसी बात का जवाब देना ही नहीं था । जैसे मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि आज नवल के कक्षा में न होने का मतलब बेईमानी होगा । अगर वह आज भी कक्षा में देर से आएगा तो इसका मतलब होगा कि उसे देर से आने की लत लग गई है ।लत को सुधारने के लिए कभी-कभी एक चाँटा ही काफ़ी होता है बशर्ते कि विद्यार्थी को याद भी दिलाया जाए कि यह चाँटा नवल जैसे नेक विद्यार्थी के लिए रामबाण सिद्ध होगा । मैं दरवाज़े तक गई । वह मुझे फिर से साहसपूर्ण ढंग से एक नई कहानी सुनाना शुरू करता कि मैंने उसके गाल पर एक थप्पड़ मार दिया । साथ ही उसे समझा भी दिया ,”नवल ! ये चाँटा तुम्हें पीड़ा पहुँचाने के लिए नहीं बल्कि तुम्हें सुधारने की भावना से मारा है ताकि तुम कम से कम आज की बात याद करके पहले से ही कक्षा में आकर बैठो ।” ” जी मैम ” कहकर वह कक्षा में आकर बैठ गया । मैंने पाठ पढ़ाना शुरू किया । जापान में पेड़ों पर चढ़कर खेले जाने वाले खेल की कौतूहलपूर्ण कहानी थी । बच्चे कहानी में पूरी तरह डूबे हुए थे । परंतु नवल आज बेहद शांत था । अपने मन की सारी उथल-पुथल को उसने अंदर दबाए रखा था । उसका मन पढ़ने में नहीं लग रहा था और मेरा पढ़ाने में । एक ही बात उसे बेचैन कर रही थी कि उसने मैम का कहना नहीं माना । आज उसे मैम से चाँटा पड़ गया । गाल का दर्द तो मामूली था । थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा लेकिन मन में जो पीड़ा थी उससे उसे कैसे छुटकारा मिलेगा ।वह आत्मग्लानि के दलदल में डूबता जा रहा था । नवल परिश्रमी होने के साथ-साथ हँसमुख था । काम में जितनी तत्परता दिखाता था उतना ही मनमौजी़ भी था । इसीलिए सब अध्यापक उसे पसंद करते थे ।
घंटी बजने पर मैंने कक्षा से विदा ली । नवल पर दृष्टि फेर मैं कक्षा से बाहर आ गई और फिर अगली दो कक्षाओं में गई । आज मेरा अंतिम पीरियड फ़्री था । लाइब्रेरी के एक कोने में जाकर नवीं के विद्यार्थी की एक स्पीच पढ़ने लगी ।आज ही उसे संशोधन करके वापस देनी थी । आँखें पढ़ती थीं ,मन नहीं पढ़ पाता था । आँखें देखती थीं ,मन नहीं समझ पाता था । मन के हर एक कोने में नवल बैठा था —विजन वन में खोए पक्षी की भाँति अकेला ,चुपचाप । न कोई हलचल न कोई चंचलता । समुद्र -सा शांत ,पर्वत-सा गंभीर । मैंने अपनी ताक़त समेटी । अपने आप को स्थिर-चित्त किया और स्पीच का काम पूरा करके मेज़ पर सिर टिका लिया ।आँखें बंद कर लीं । नवल फिर से वापस आ गया था —मन में ,आँखों में ,ध्यान में …..नवल ही नवल | ”क्यों खाई तुमने मेरे हाथ से मार ? क्यों कर रहे थे मेरी मार का इंतज़ार ? च्च च्च ! ओह ! अब तो छुट्टी होने वाली है । घंटी भी बजती ही होगी ।” सिर भारी हो रहा था । छुट्टी का इंतज़ार कर रही थी । एक बज कर पचास मिनट पर पर घंटी बज गई । मेरी बस सवा दो बजे से पहले कभी नहीं आती थी । इसलिए सोचा—आज देर से नीचे जाऊँगी । सिर मेज़ पर टिका था । आँखें बंद थीं । घंटी बजे हुए दस मिनट हो गए थे । पूरा स्कूल ख़ाली हो गया था । लाइब्रेरी सुनसान हो गयी थी । किसी ने धीरे-से मेरे कंधे पर हाथ रखा । बहुत धीरे-से …हौले-हौले । शायद उसे लगा मेरी आँख लगी है । मैंने धीरे-से सिर उठाया । आँखें खोलीं । मेरे सामने नवल खड़ा था ।साथ में अभिनीत भी था —उसका दोस्त ।”सौरी मैम” मैंने सोचा , “आपकी बस छूट जाएगी इसलिए आपको उठा रहा था । सब लोग चले गये हैं । मैंने सोचा ,आप यहाँ अकेली रह जाएँगी । मुझे डर लग रहा था ।” मैं मुसकुरा दी ।
“थैंक्यू नवल ! मैं सोई नहीं थी पर तुम बहुत समझदार हो ।” “मैम ! आप सोई नहीं थीं । आप मेरे बारे में सोच रही थीं ना ?” मैं नक़ली ग़ुस्सा दिखाकर बोली ,”नहीं ,बिलकुल भी नहीं ।” “मैम ! आप झूठ बोल रही हैं ।आप बिलकुल मेरे बारे में सोच रही थीं । है ना ? है ना मैम ?”
मैं हँस पड़ी ।
“थैंक्यू मैम ! सौरी मैम !”
और फिर अभिनीत के साथ दौड़ गया ।
मेरी समझ ने मुझे समझाया —देखा तुमने ! बच्चों के मन की दुनिया कितनी अलग होती है ! अनंत तक फैला हुआ ऐसा खुलापन और कहाँ ! दुनिया भर के मानवी रिश्तों की लहलहाती फ़सल के लिए ऐसी ही उपजाऊ ज़मीन चाहिए । न कोई बंदिश ,न कोई खटास । न कोई दीवार ,न कोई दरार ।


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