तुम्हारा नाम धीरज है पर मैं तुम्हें प्यार से ‘धीरू’ ही कहती हूँ।जाने अनजाने मैं कब से तुम्हें इस नाम से पुकारने लगी,याद नहीं।
दो अप्रैल का दिन था।आज से स्कूल का नया सैशन शुरू होने वाला था।साल के पहले दिन अध्यापकों में नया जोश रहता है।बच्चे भी इससे अछूते नहीं रहते।मार्निंग असेंबली के बाद कक्षा -अध्यापिकाओं को अपनी-अपनी कक्षाओं में जाना था।मार्निंग असेंबली हुई और मैं रजिस्टर लेकर नवीं कक्षा में गई।बच्चे समझ गए कि मैं ही उनकी क्लास टीचर हूँ।मेरे कक्षा में प्रवेश करते ही सब बच्चे खड़े हो गए।कौतूहल भरी प्रसन्नता से एक साथ बोले-“गुड मॉर्निंग मैम !” ‘‘गुड मार्निंग चिल्ड्रन ! ” मैंने उत्तर दिया।फिर तुम्हारी ओर नज़र घुमाई और देखा कि तुम अपनी सीट पर बैठे हुए हो।मैंने कहा- “बेटा ! तुम भी खड़े हो जाओ।क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है ? व्हट्स योर नेम ?” तुमने जवाब नहीं दिया।तुम अपनी बड़ी-बड़ी निश्छल आँखों से मुझे एकटक देखते रहे।एक बार भी तुमने आँखें नहीं झपकाईं और तुम खड़े भी नहीं हुए।‘‘क्या बात है बेटा ! तुम कुछ बोलते नहीं ? नाराज़ हो ?” सारे बच्चे एक साथ चिल्लाने लगे- ‘‘मैम ! इसे कुछ प्राब्लम है। मैम ! यह हमेशा चुप रहता है।इसका नाम धीरज है। इसका दिमाग आठ साल के बच्चे के बराबर है।’’ उस समय तुम कितने रुआँसे हो गए थे , बता नहीं सकती। आँखें नीची करके तुम्हारा इधर-उधर देखना और फिर विचलित हो जाना मुझे अच्छी तरह याद है।तुम्हारी शांत-सौम्य छवि और गोरा सुर्ख चेहरा।उस पर जब तुम झेंप रहे थे तो तुम्हारे मन के भाव तुम्हारे चेहरे पर दर्पण की तरह साफ नज़र आते और मैं असहज हो जाती।दरअसल मैं तुम्हें ऐसी स्थिति में देखना ही नहीं चाहती थी।भला कौन अध्यापक अपने बच्चों को ऐसी स्थिति में देखना चाहेगा।उस दिन तुम्हें देखकर मैंने मन में एक संकल्प लिया – मैं अपनी पूरी शक्ति लगा दूँगी ताकि तुम भी दूसरे बच्चों की तरह अपने मन की बात पूरी सच्चाई से कह पाओ।मैं तुम्हारी दोस्त बनकर तुम्हारा विश्वास जगाऊँगी।तुमसे तुम्हारे दिल की बात पूछूँगी।दिल से पूछूँगी।जैसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई से पूछता है। जैसे बड़ी बहन अपनी छोटी बहन से पूछती है।
अगले दिन मैंने कक्षा में प्रवेश किया।दूसरा पीरियड था। सब बच्चे खड़े हुए।तुम अपनी सीट पर बैठे रहे। ‘‘ गुड मॉर्निंग धीरज ! तुम बैठे रहो बेटे!” मैंने मुसकराते हुए फिर कहा-“धीरू ! तुम बैठे-बैठे गुड मार्निंग बोल दिया करो।जब तुम्हारा दिल करेगा तब तुम खड़े हो जाना।अच्छा ! ’’ तुम बड़ी-बड़ी आँखों से देखते रहे और मौन स्वीकृति में सिर भी हिला दिया पर बोले कुछ नहीं।तुम्हारे सिर हिलाने में भी मुझे एक संतोषजनक संकेत मिला कि तुम पहली सीढ़ी चढ़ चुके हो।मंज़िल कठिन तो है पर असंभव नहीं ।
मैं हर रोज़ तुम्हारी कक्षा में आकर पढ़ाती और तुम तक आने का सहज मौक़ा ढूँढती।धीरे से तुम्हारी पीठ पर हाथ रख कुछ ऐसी ऊर्जा देने की कोशिश करती कि तुम ऊर्जावान हो उठो कि तुम्हारा मनोबल ऊँचा हो जाए कि तुम जीवंत हो उठो।विद्यार्थियों को छूने तक की मनाही थी मगर जहाँ इरादे पाक होते हैं वहाँ सच्चे हृदय की लगन व्यक्ति को बेपरवाह बना देती है।
अप्रैल के महीने का आखिरी हफ़्ता था। दिल्ली भयंकर गर्मी की चपेट में थी। मैं स्कूल की लाइब्रेरी में बैठी कॉपियाँ चैक कर रही थी।अचानक दो लड़के भाग-भागकर आए और बोले-‘‘मैम धीरज की तबीयत बहुत खराब है। उसने कक्षा में उल्टी कर दी है।’’ मैं तुरंत उठी और कक्षा में गई। कक्षा के सभी बच्चे अपनी-अपनी सीट पर चले गए थे।सिर्फ वे बच्चे अलग खड़े थे जिनकी सीट तुम्हारे आसपास थी।कक्षा में उल्टी की असहनीय बदबू आ रही थी। सबकी आँखें तुम पर टिकी थीं और तुम अपनी सीट पर बैठे चुपचाप मुझे देख रहे थे। उस दिन मैंने तुम्हारी आँखों में जो भय देखा उससे मैं समझ गई कि तुम अपनी उम्र के बाकी बच्चों से कितने अलग हो। तुम्हारे होंठ डर के मारे काँप रहे थे। कुछ न बोलकर भी तुम्हारी आँखें बहुत कुछ बयाँ कर रही थीं।‘‘धीरू ! तुम्हें क्या हुआ ?“ मेरे पूछते ही तुम्हारी आँखें छलक पड़ीं । ”आज तो मैं तुम्हें बुलवाकर ही रहूँगी।” मैंने मन में अपना संकल्प दोहराया। ‘‘धीरू ! तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है ना ? लो ! थोड़ा पानी पी लो।मैं मम्मी को बुलवा देती हूँ।तुम घर चले जाना।’’ आज भी मैं ही बोल रही थी और तुम स्वीकार में सिर हिला रहे थे। बावजूद इसके मुझे अहसास हो रहा था कि मेरी कोशिश कहीं न कहीं सही राह पर चल रही है। भला नेक संकल्प की राह भी कभी असफल हो सकती है ? ऐसा संकल्प जिसमें किसी के अंतर्मन की आवाज़ को ज़िंदा करने की चाह हो।किसी में जीवन की तरंग जगाने की चाह हो ।
तुम्हारी कक्षा में आने का सिलसिला सालभर चलता रहा।मैं हमेशा ही तुम तक पहुँचकर तुम से दो एक मन की बातें करके तुम्हें टटोलने की कोशिश करती। धीरू ! तुम बाकी बच्चों से कितने अलग थे ! कितने भोले थे ! बच्चे होमवर्क जमा न करने पर दस बहाने बनाते।ऐसी-ऐसी बातें करते , ऐसी-ऐसी कहानियाँ सुनाते कि उन्हें माफ़ करना हम लोगों की मज़बूरी हो जाती।और तुम…………तुम चुपचाप खड़े हो जाते।लाख पूछने पर भी कुछ न बोलते।बहाने तो दूर की बात।बच्चे अपना टिफ़िन खाकर दूसरों का भी खा जाते। फिर झटपट सीधे होकर बैठ जाते जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो और फिर चार बातें बनाकर सफ़ाई भी दे जाते और तुम………..तुम तो ब्रेक के समय जब भी अपना टिफ़िन खोलते ,उसमें कुछ न मिलता।तुम सारा दिन भूखे रह जाते मगर कभी शिकायत नहीं करते।मेरी दिली इच्छा होती कि काश ! तुम भी बार-बार आकर शिकायत करते ! बहाने बनाते ! अपनी उम्र के बच्चों जैसी शैतानियाँ करते ! जीवन में कभी-कभी कैसी विचित्र परिस्थितियाँ आ जाती हैं।सारे मापदंड ही बदल जाते हैं।या यों कहिए कि एक ही लाठी से सबको नहीं हाँका जा सकता । कक्षा के सभी बच्चों से शांत होकर बैठने को कहा जाता और तुम से उम्मीद की जाती कि तुम ख़ूब बातें करो।ख़ूब शैतानी करो।तुम्हारी शैतानी के मायने थे कि तुम में सुधार हो रहा है।तुम में जीवन की तरंग जाग रही है।
मैं तुम्हारे पीठ पीछे बच्चों से कहती कि तुम धीरज को अपने साथ खेलने ले जाया करो कि तुम धीरज को भी अपने ग्रुप में शामिल कर लो कि तुम धीरज के साथ टिफ़िन शेयर किया करो।पी. टी .एम. में जब तुम्हारे माता-पिता आते तो उनसे कहती -“आप धीरज को अपना दोस्त बना लीजिए।उसके साथ खूब खेलिए।उसके साथ खूब हँसिए।एक न एक दिन धीरज ज़रूर अपने मन की बात कहेगा ।
एक साल बीत गया।बच्चे दसवीं कक्षा में चले गए।तुम भी दसवीं कक्षा में चले गए।मैं फिर से तुम्हारी क्लास टीचर बन गई।दसवीं कक्षा में शुरू से ही अध्यापक सख्ती दिखाते – कभी बोर्ड परीक्षा को लेकर तो कभी अच्छे रिज़ल्ट को लेकर।बच्चों को डरा-धमकाकर कड़े अनुशासन में रखा जाता।मोबाइल लाने की सख्त मनाही थी। फिर भी कोई बच्चा चोरी-छिपे ले आता तो पकड़े जाने पर प्रिंसीपल के पास जमा हो जाता और फिर माता-पिता के स्कूल आने पर ही वापस मिलता।
एक दिन मैं प्रिंसीपल के ऑफिस जा रही थी।अचानक तुम अपनी कक्षा से निकलकर बाहर आए। ‘‘एक्सक्यूज़ मी मैम ! आपसे एक बात कहनी है।’’ ‘‘हाँ धीरू बोलो !” ‘‘ मैम अकेले में करनी है।” “चलो !लाइब्रेरी में चलते हैं।” लाइब्रेरी में दोनों आराम से बैठे। “हाँ धीरू ! अब बताओ।” आज मेरी आँखों में खुशी की चमक थी और दिल में हलचल।क्योंकि आज तुम पहली बार अपने दिल की बात कहने वाले थे।शुरुआत हो गई थी।फिर तुम आगे बोले -“मैम प्लीज़ ! प्रिसींपल मैम से मेरा मोबाइल दिलवा दीजिए।मैम प्लीज़ !” ‘‘धीरू ! तुम मोबाइल लाए थे ?” ‘‘यस मैम।’’ मैं भी अपने मन की बात धीरे-से बता दूँ– तुम्हारे लिए सारे मापदंड अलग तो थे ही । इसलिए मैं अंदर ही अंदर खुश भी थी और बेचैन भी। मैंने फिर पूछा –
‘‘मम्मी-पापा को पता है ?”
‘‘नो मैम।’’
‘‘घर जाकर बता देना।’’
‘‘मैम, मम्मी को बता दूँगा।’’
‘‘पापा को नहीं ?’’
‘‘नो मैम।मैम ! प्लीज़ आप भी मत बताना पापा को।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘क्योंकि वे बहुत गुस्सा करेंगे।मुझे भी बहुत डाँटेंगे और मम्मी को भी।वे मेरे असली पापा नहीं हैं।मेरी मम्मी असली मम्मी हैं।मेरे असली पापा तो तभी हमें छोड़कर दुबई चले गए थे जब मैं आठ साल का था।तब से वे कभी वापस नहीं आए।’’
यह मेरी उपलब्धि थी या हार ? समझ नहीं पाई।मगर मुझे पैरों तले ज़मीन खिसकती मालूम हुई।मन विचलित हो गया। मुझे नवीं कक्षा के बच्चों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं – मैम ! इसे प्राब्लम है…………….यह हमेशा चुप रहता है…..इसका दिमाग आठ साल के बच्चे के बराबर है………….
मैंने धीरे-से अपने अंदर के अध्यापक से कहा-“ देखा तुमने ! शांत समुद्र के गर्भ में किस हद तक तूफ़ान छिपे रहते हैं।धैर्यरूपा धरती की कोख में किस हद तक ज्वालामुखी का लावा दबा रहता है।” सच में अपने अंदर के अध्यापक को ज़िंदा रखने के लिए इन बातों को वक़्त पर जानना ज़रूरी है।देर हुई तो अंधेर हो जाएगा ।


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