आम्र-वल्लरी

वाटिका में आम्र-तरु फैला विशाल
सांध्य-घन-सी छाँह और पुलकित बयार ।
वृक्ष के नीचे खिली है वल्लरी
सूर्य का आतप जलाता बेशुमार ।

स्नेह का आँचल पसारे पितृ-सम
आम्र-तरु देता नमी और आर्द्रता ।
छत्रछाया में खिली फिर वल्लरी
प्राप्त करती प्रेम-रस की स्निग्धता ।

दिन महीने साल बीते इस तरह
दूज के चंदा-सी पुष्पित-पल्लवित ।
लहलहाती खिलखिलाती मंद स्मित
पा पिता का हाथ पुलकित -उल्लसित ।

वाटिका में ,खेत-खलिहानों में जब
सरसराता मंद-मंद मलय समीर ।
मुसकुराकर थिरक-थिरक बेलि फिर
लिपट जाती शिशु सरीखी हो अधीर ।

आम्र के ममत्व का वितान पाकर
स्नेह -सिक्त वल्लरी आह्लाद पाती ।
हर्ष के अतिरेक में मुँदी खिली
आम्र के वात्सल्य रस का स्वाद पाती।

समय की सुगति के साथ घूम-घूम
पुष्प-वल्लरी हुई शुभयौवना ।
राग – रंगपूर्ण देह रसवती
हरीतिमा सुशोभना,सुदर्शना ।

नयनाभिराम लता-देह खिल उठी
नव उमंग,नवल कान्ति छा गई ।
हरित सरस वल्लरी हँसी -खुशी
आम्र-तरु के शिखर तक पहुँच गई ।

काल के पहिए के साथ घूम-घूम
आम्र-वृक्ष शक्तिहीन वृद्ध हुआ ।
वन-पर्वतों में,वाटिका-उद्यान में
सनसनाती वायु का प्रकोप हुआ ।

प्रबल वेगवती वायु बलवती
जड़-तना,शाख सब उखाड़ती ।
लड़खड़ाया आम्र प्राणहीन-सा
आँधियाँ समस्त अंग तोड़तीं ।

डगमगा रहा था सभय चित्त से
चरमरा रही थीं जड़ें काँप कर ।
विकल मन अशांत हुआ भ्रांत-सा
हिल उठी थी देह कष्ट जानकर ।

फैली हुई थी वल्लरी विस्तार से
चारों तरफ़ लिपटी हुई थी दूर तक ।
सुदृढ़ बाँहों में उठाया आम्र को
और झुककर दे दिया निज शीश तक ।

आम्र बोला-“अरि सुते ! यह क्या किया ?
भार क्यों इस वृद्ध का उठा लिया ?”
वल्लरी प्रसन्न मन से कह उठी –
“हो गयी मैं धन्य ,जो ऐसा किया ।

संसार लता-गुल्म का महान है
वृद्ध का अवलंब बनती ख़ुद लता ।
वृद्ध का आश्रम यहाँ है लापता
मनुज को कुछ शर्म आए क्या पता ।

वृद्धजन सब आश्रमों में जा रहे
घोर अंधकार प्रलय हो रहा ।
शर्मनाक घृणित कर्म देखकर
आसमां भी आठ आँसू रो रहा ।”

Search for a Topic
Categories
Posted Recently
Contact US

स्क्रिप्ट, कहानी लेखन एवं कविता, गीत रचना समबन्धी कार्य के लिए संपर्क करें।
📧: pushpamanral11@gmail.com