मन को रचना भूल न जाएँ

रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।
लालच की बढ़ती आँधी में
सच पर चलना भूल न जाएँ ।

सागर की तूफ़ानी लहरें
मचता हाहाकार अपार ।
नौका डूबे मँझधारों में
मानव को यह कब स्वीकार ?

जीवन-पथ पर बिखरे काँटे
राह खोजना भूल न जाएँ ।
रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।

धरती डूबे घोर तिमिर में
मानव-मन को चैन कहाँ ?
चंद्र-किरण की ज्योति नहीं तो
सुखदायी फिर रैन कहाँ ?

अंतर्मन की चिंगारी से
दीप जलाना भूल न जाएँ ।
रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।

नद-झरनों का स्रोत प्रवाहित
बहती है अमृत रस-धार ।
मानव-मन तो शुष्क पड़ा है
नहीं पराग,नहीं मंद बयार ।

नव यौवन की नव तरंग से
नव गति देना भूल न जाएँ ।
रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।

शील-विनय बिन हृदय सूना
तार बिना झंकार नहीं ।
बिन ख़ुशबू के फूल है सूना
मानवता और प्यार नहीं ।

अंबर छूने की चाहत में
ज़मीं पे चलना भूल न जाएँ ।
रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।

प्रतिभाओं की होड़ लगी है
पर मानवता रोती है ।
मन की खिड़की बंद पड़ी है
भौतिकता मुसकाती है ।

सोने-चाँदी की चाहत में
हाथ थामना भूल न जाएँ ।
रचना की पावन दुनिया में
मन को रचना भूल न जाएँ ।

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