बचपन के गाँव में मिट्टी के घर के पास
छोटी-सी एक पहाड़ी पूरब की ओर ।
उस पर लहराता पीपल एक बुज़ुर्ग-सा
हज़ारों पक्षी चहकते जागते अति भोर ।
हरे-भरे तरुवर की शीतल-सघन शाखें
स्वागत में फैलातीं बाँहों को गाँव तक ।
आँगन के छोर से छोटी-सी पगडंडी
ले जाती बच्चों को पीपल की छाँव तक ।
विशालकाय प्रहरी-सा तना शक्तिशाली
द्विशाखा तक चढ़ जाते दरियाँ बिछाते ।
बस्ते से तख़्ती-दवात और स्याही
कॉपी-क़लम , पेंसिल , किताबें निकालते ।
दो हर्फ़ लिखते ही होती बहुत लड़ाई
नीचे उतर छाँव में ख़ूब कंचे खेलते ।
हरी डाल-पत्तियों के कुंज में छुपी हुईं
चिड़ियों की बोली की नक़ल फिर उतारते ।
कई बरस बाद गई बचपन के गाँव में
पीपल की एक भुजा आग में जली हुई ।
विकराल रूप मौन था , कालिख भरी हुई
अटल , निर्द्वंद्व और ठूँठ सी-खड़ी हुई ।
वर्षा का प्रथम दिन मेघ की उमड़-घुमड़
पानी की बौछार से धरा मुसकराई ।
पहली बूँद जल की मिली अति सुखदाई
पीपल की जली हुई शाख लहलहाई ।
नई-नई पत्तियाँ व लाल-हरी कोंपलें
हर्ष से भरी हुईं द्वार खोल झाँकतीं ।
सूरज की नरम-नरम रेशम-सी आँच पा
ध्यान-मग्न लीन-सी मुदित नयन खोलतीं ।
क्योंकि उसके अंदर थी एक नस बची हुई
अडिग-अचल , अजर-अमर प्राण विद्यमान था ।
रस-प्रवाह की तरंग अंग में बसी हुई
ओज तेज शौर्य राग-रंग प्राणवान था ।
यह अखंड प्राण-रस नस-नस में है बसा
प्रलय-तूफ़ान में ज़िंदा रख हर हाल में ।
यह विचित्र अमिय रस नब्ज़ में , शिराओं में
निबिड़ अंधकार में ज़िंदा रख हर काल में ।


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