मैंने समाचार पत्र में एक लेख पढ़ा — गाँव के सरपंच ने चिड़ियों को बसाने का ज़िम्मा लिया है । उसने एक बड़े बाग़ में चिड़ियों की बस्ती आबाद करने का निश्चय किया । बाँस की ढेरों डंडियाँ लीं । उन्हें मोड़कर दोहरा किया और अंदर की तरफ़ हल्की सूखी घास के तिनके सजाकर उन्हें घोंसलों का रूप दिया और फिर पेड़ों की शाखाओं पर वह उन घोसलों को रखता चला गया । चिड़ियों को ये घोंसले बहुत पसंद आए और वे वहाँ आकर बसने लगीं । चिड़ियों की चहचहाहट से बाग़ गूँज उठा । इसी के साथ ही अंडे देने का सिलसिला शुरू हुआ । आज सरपंच के बाग़ में हज़ारों चिड़ियों का बसेरा है । उसके पेड़ों पर हज़ारों की संख्या में घोंसले हैं । उनमें हज़ारों अंडे और हज़ारों बच्चे हैं — मुझे यह बात बहुत भा गई और मन में कुछ मिठास- सी घोल गई । मैंने सोचा — सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य के साथी बनकर रहने वाले मासूम जीवों को बचाने की इससे अच्छी कोशिश और भला क्या हो सकती है !
मेरे कमरे की खिड़की के बाहर कबूतर हर साल अपना घोंसला बनाते हैं । मैंने संकल्प लिया — अबकी बार मैं उनके घोंसले की ख़ास देखभाल करूँगी ।
मेरा घर तीसरी मंज़िल पर है । बैडरूम के बाहर जहाँ ए सी या कूलर रखने की जगह होती है वहाँ एक कूलर रखा हुआ था । अक्टूबर का महीना था । कूलर और दीवार के बीच की जगह में कबूतर अपना साजो-सामान इकट्ठा कर रहा था — झाड़ीनुमा डंडियाँ , झाड़ू की सींकें , सूखी पत्तियाँ आदि । शाम तक घोंसला बन गया था । मैं ख़ुशी से उछल पड़ी ।
अगली सुबह मैंने देखा — वहाँ कबूतर ने दो अंडे दिए थे । मादा थोड़ी देर के लिए बाहर जाती । बाकी सारा दिन अंडों के पास ही रहती और नर एक सिपाही की भाँति थोड़ी-सी दूरी पर डटा रहता । संतान की रक्षा में तत्पर । एकदम सावधान । संतान के प्रति ऐसी संरक्षण की भावना देख मैं आश्चर्यचकित हो जाती । मैं सोचती — छोटे-छोटे जीवों में ऐसी ममता भरने वाला सचमुच महान है ।
मैं रोज़ सुबह उठकर एक बार अवश्य घोंसले में झाँक कर देखती और वहाँ थोडे़-से चावल बिखेर कर एक बर्तन में पानी भी रख दिया करती । यह क्रम चलता रहा और एक दिन अंडों से बच्चे निकल आए । एक दम सुनहरे । पीली मिट्टी की तरह या कुछ-कुछ नई सूखी घास की तरह । बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे और स्वर्णिम संध्या की नीलाभ छवि उनके पंखों की तह में झलकने लगी । वे घोंसले से बाहर आकर ढकमकाते हुए चलने लगे । बस चार क़दम आते फिर माँ के पास चले जाते । मैंने कबूतरों का पलना-बढ़ना , दहलीज़ लाँघना और उड़ने की कोशिश में धीरे से कूदना — सब कुछ पहली बार देखा । सब कुछ कौतूहल भरा था ।
एक दिन सुबह के समय अचानक ही कोहराम मच गया । कबूतरों की भयावह आवाज़ें सुनाई देने लगीं । छप-छप कर झपट्टा मारने की आहटें महसूस होने लगीं । मैंने पर्दा खिसकाकर देखा तो दंग रह गयी । बाहर से आया हुआ एक कबूतर हमारी मादा कबूतर पर बार-बार प्रहार कर रहा था । नर न जाने कहाँ चला गया था । मादा अपने को बचाने के साथ-साथ अपने दो सुनहरे बच्चों को जी जान से बचाने में लगी थी । अपने पंखों से उन्हें बार-बार ढक रही थी और दुष्ट कबूतर मानो काल बन कर झपट रहा था । एक सुनहरे बच्चे की गर्दन पर उसने घाव कर दिया था । मैंने अपनी बेटी से कहा —‘’अन्वी ! एक डंडा लेकर आ । मैं अब इस कबूतर को यहाँ नहीं आने दूँगी। कितना दुष्ट है ! बेचारे बच्चे की गर्दन पर घाव कर दिया । तू जल्दी से थोड़ा सरसों का तेल और हल्दी ले आ ।’’ बेटी रसोई से तेल और हल्दी ले आयी । मैंने खिड़की से ही धीरे-धीरे उसकी गर्दन पर तेल और हल्दी उड़ेल दी । थोड़ी देर में कबूतरों का प्रपंच भी थम गया ।
शाम को मैंने रोज़ की भाँति जाकर देखा तो पाया कि दोनों बच्चे और माँ अब वहाँ नहीं हैं । घोंसला सूना पड़ा है । एकदम वीरान । मासूम पक्षियों के सृजन में बाधा देख दिल बैठ गया ।
अगले दिन सुबह मैंने आदतानुसार घोंसले में झाँक कर देखा तो देखती रह गई । वहाँ तीन सुंदर अंडे चमक रहे थे । मादा पास ही बैठी थी। मैं मुसकरा उठी और फिर तनिक ग़ुस्से में बोली — ‘’अच्छा ! तो यह राज़ था कल की लड़ाई का !तुम्हें भी यहीं पर अंडे देने थे ? तो कम से कम लड़ाई तो नहीं की होती ! ज़ोर ज़बरदस्ती करके सब कुछ हथिया लिया । आख़िर तुम भी मेहनत कर सकते थे । ढूँढ-खोज कर तिनके बटोर सकते थे । तुम भी यहाँ-वहाँ से डंडियाँ जुटा सकते थे और किसी इंसान के घर में एक छोटा-सा घोंसला बना सकते थे । हम मनुष्यों की दुनिया में भी कुछ इंसान बसते हैं जो यह समझते हैं कि धरती ,आकाश , पानी , हवा सबके लिए हैं । विधाता ने इन्हें सब के लिए रचा है और इन पर सबकी बराबर की हिस्सेदारी है । मगर तुमने तो ज़्यादती ही कर दी ।उन बेचारों को बेघर कर दिया ! कमबख़्त !’’
ख़ैर …..यहाँ भी वही क्रम चलता रहा । मादा सारा दिन अंडों के पास रहती । थोड़ी देर के लिए ही बाहर जाती और नर एक सिपाही की भाँति थोड़ी-सी दूरी पर डटा रहता ।पहरेदार की तरह सावधान । पिता की कर्तव्यनिष्ठा देख मैं विस्मित हो उठती । हर रोज़ सुबह उठकर उन्हें देखती । वहाँ चावल बिखेरती , बर्तन में पानी भरती । मैं इंतज़ार करने लगी —अंडों से बच्चे निकलने का । सोचती — फिर से तीन सुनहरे बच्चे होंगे —पीली मिट्टी की तरह , नई सूखी घास की तरह और फिर नीलाभ स्याही की तरह ।
एक दिन रोज़ की तरह सुबह उठी । कुछ सूनापन महसूस किया । आज वहाँ कबूतरों की कोई हलचल नहीं थी । आनंद-मग्न मादा का मंद स्वर नहीं सुनाई देता था । मगर …. मगर घोंसले के आसपास और मेरी खिड़की के पास आँतों के लंबे-लंबे धागे-से दिख रहे थे । पीले-हरे रंग का गीला-गीला पदार्थ-सा दिख रहा था । न जाने रात ही में कौन काल बनकर आया और कबूतर का सारा संसार नष्ट करके चला गया ।सृजन में इतनी बड़ी बाधा कि पहरेदारी भी काम न आयी ।
अब न वहाँ नव-रचना में मग्न मादा कबूतर है न पहरेदारी में तैनात नर कबूतर Iपहले दूसरे को बेघर किया अब खुद का घोंसला सूना पड़ा है I सब कुछ उजड़ चुका है ।इस लड़ाई में दोनों परिवारों ने बहुत कुछ खोया था । एक ने संपत्ति और स्वास्थ्य तो दूसरे ने ज़िंदगियाँ । मन को बहुत पीड़ा हुई । युद्ध का विचार आते ही मैं सोचने लगी— युद्ध छोटा हो या बड़ा —युद्ध सृज़न में बाधा डालता है , संभावनाओं के सारे दरवाजे़ ध्वस्त कर देता है । युद्ध में शक्ति और साधन के दुरुपयोग से विध्वंस मच जाता है । एक ही झटके में हजा़रों ज़िंदगियाँ तबाह हो जाती हैं । जहाँ जीवन नहीं ,वहाँ समृद्धि ,सत्ता और शासन के कोई मायने नहीं ।फिर ज़मीनों पर क़ब्ज़ा किसलिए ? नदी-समुद्रों में पानी की छीना-झपटी किसलिए ? संसार की ख़ुशहाली के लिए इन्हें रोकना होगा ।


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