चिलचिलाती झुलसाती गर्मी की दोपहरी थी ।
पतली -सी वह सड़क लोगों से खचाखच भरी थी l
सड़क का रास्ता ऊबड़ – ख़ाबड़ ,पथरीला था ।
धूल – मिट्टी भरा ऊँचा – नीचा , मटमैला था l
किनारे पर खोदी गई थी गहरी लंबी खाई ।
किसी की बन आयी , किसी की मुसीबत घिर आई ।
बुढ़ापे से लड़खड़ाती एक बूढ़े की काया ।
जीवन में उसके बच पाई थी न मोह न माया ।
बूढ़ा उसी सड़क पर चल रहा था पाँव लड़खड़ाया ।
खाई में जा गिरा मगर किसी ने नहीं उठाया ।
एकाकी जीवन में चारों तरफ़ अंधकार था ।
सड़क पर चलने वाला हर आदमी मक्कार था ।
आँखों से उसका ऊपर उठा हाथ देखता था ।
सहारा माँग रहा है —यह भी ख़ूब समझता था ।
सड़क पर चलने वाले का शहरीपन तो देखिए !
और उसे ज़रा नज़दीक से तो परखिए ।
वह आँखें होते हुए भी आँख का अंधा है।
उसकी कच्ची रीढ़ और कच्चा उसका कंधा है ।
आँखें बंद किए अपनी राह चल रहा है।
हर घड़ी हर पल आज इंसान मर रहा है ।
दूसरी तरफ़ इसी भीड़ में खड़ा एक अंधा है ।
आँखें नहीं हैं पर मज़बूत उसका कंधा है ।
अपनी लाठी के सहारे सरक – सरक कर नीचे जाता है ।
बूढ़े के पास पहुँच कर सहारे का हाथ उसे देता है ।
बूढ़ा हाथ थाम धीरे – धीरे ऊपर आ जाता है ।
अंधे का देवरूप गहराई तक छा जाता है ।
सड़क पर चलने वाला हर आँख वाला शर्मा जाता है ।
आँख का अंधा आँख वाला बन जाता है ।
उसे देखकर देव का देवत्व भी झुक जाता है ।
इंसान रूप छोटा है वह भगवान बन जाता है ।


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