गोग्रास


मैं सुबह पाँच बजे अपनी रसोई में प्रवेश करती हूँ और भोजन की व्यवस्था में जुट जाती हूँ। घर में कई सालों से तीन या चार टिफ़िन पैक किए जाते हैं। हर रोज़ भोजन में जो भी बनता है सबसे पहले गोमाता का हिस्सा (गोग्रास) रखा जाता है। मैंने माँ के घर में बचपन से ही देखा था कि ताऊजी जब भी सुबह भोजन करने रसोई में आते तो सबसे पहले गाय का हिस्सा निकालकर उसे तुरंत खिला आते और फिर खुद भोजन करने बैठते। मेरे मन में पशु -पक्षियों के प्रति प्रेम , आकर्षण या कौतूहल उन्हीं का जगाया हुआ है। उन्होंने गाय को भोजन दिए बिना कभी खाना खाया हो, मुझे याद नहीं।

यहाँ बड़े शहरों में ऐसी व्यवस्था तो नहीं हो सकती। लेकिन हाँ, मैं गाय का हिस्सा निकालकर उसकी एक पुड़िया बना देती और मेरे पति ऑफिस जाते समय रास्ते में मिलने वाली गाय को भोजन खिला देते।

जैसे-जैसे समय बीतता गया ,रास्ते की गायों को भोजन पाने की आदत भी पड़ती गई। ठीक समय पर वे टकटकी लगाकर राह देखती रहतीं। मेरे पति को भी उनका इंतजा़र करना बड़ा भला मालूम पड़ता। गाय की आँखों में छायी अपार करूणा कितनी भली दिखाई देती है। कितनी सुदर्शना होती है गाय ! मानो विधाता ने उसकी सृष्टि करके सज्जनता ,दया, प्रेम और श्रद्धा को एक साथ प्रतिष्ठित कर दिया हो।

गाड़ी की गति धीमी होने पर गायें अलसगति से चलकर गाड़ी की ओर आतीं। उनमें कोई जल्दबाजी़ नहीं। गाड़ी रुकने पर आराम से शीशा खुलने का इंतजा़र करतीं और शीशा खुलते ही गाड़ी के अंदर मुँह डाल देतीं।अपना प्राप्य मिलने के बाद बड़े आनंद से खाकर मंद गति से फिर अपने स्थान को लौट जातीं।

मुझे शाम को कभी-कभी अपने पति के साथ गाड़ी में बैठकर आस-पास की मार्केट जाना पड़ता। गाड़ी में गोग्रास की पुड़ियों की संख्या देखकर मैं समझ जाती कि कितने दिन से रास्ते में गाय नहीं मिली।

इसी क्रम में एक दिन शाम को हम दोनों मार्केट के लिए निकले। गाड़ी में बैठते ही देखा कि गाड़ी में तीन पुड़ियाँ रखी हैं। इसका मतलब था`— तीन दिन से गाय नहीं मिली। गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। सड़क के दोनों ओर बड़े-बड़े ऑफिस और बड़े-बड़े माॅल थे। बड़े -बड़े स्टोर और शोरूम आ रहे थे और पीछे छूटते जा रहे थे। सचमुच यहाँ गोग्रास की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर भी मेरी आँखें सतर्क थीं कि कहीं भूले-भटके कोई गाय मिल जाए तो अच्छा हो I गाय को भोेजन खिला दूँगी।

थोड़ी देर बाद हमारी गाड़ी रैड लाइट पर रूकी I चौराहा था। सड़क के दाहिनी ओर खूब बड़ी इमारत बन रही थी। एकदम आकाश छूती — बीस मंज़िलें मैंने गिनीं। इमारत के अंदर से चार लड़कियों का झुंड तेज़ी से दौड़कर बाहर आया। रैड लाइट होने पर ये लोग इसी तरह भाग-भाग कर आते हैं जैसे कोई दुर्घटना घट गई हो।

लड़कियाँ हर गाड़ी के पास थोड़ी देर रूककर कुछ कुछ कहतीं। एक ने लंबा फ़्रॉक पहना है I बाल बुरी तरह बिखरे हैं। दो ने लंबे -से घाघरे पहने हैं और ऊपर मैले-से कुर्ते। चौथी ने निक्कर और ब्लाउज़। पहली वाली की गोद में एक लड़का भी है — छोटा-सा, करीब दो साल का I शायद उसका भाई होगा।

चारों लड़कियाँ दौड़-दौड़कर हमारी गाड़ी के पास बेढब तरीक़े से खड़ी हो गईं। मिन्नतें करने लगीं —‘‘साब ! शीशा खोलो। शीशा खोलो साब ! मेमसाब ! शीशा खोलो। भगवान तुम्हें खुश रखेगा। तुम्हें लंबी उम्र देगा। शीशा खोलो।‘‘ मेरे पति ने शीशा खोला। शीशा खुलते ही वे गोग्रास की पुड़ियों पर झपट पड़ीं। कितने हाथ एकदम से अंदर आए। कितनी तेज़ी से पुड़ियाँ गाड़ी से बाहर गईं। छीनाझपटी हुई। किसको कितना मिला ,कुछ पता नहीं । झटपट में जिसको जितना मिला, जैसा मिला ,सड़क के किनारे बैठकर पेट के अंदर किया और फिर बिना अफरातफ़री के इत्मीनान के साथ इमारत के अंदर चली गईं। गोग्रास ने उनकी भूख शांत की या और जगाई, कह नहीं सकती। तपती धरती पर बारिश की दो बूँदें पड़ जाएँ तो उसकी तपन शांत नहीं होती बल्कि उमस और बेचैनी ज़्यादा बढ़ जाती है। हाँ ,ये बात अलग है कि वर्षा ऋतु में यदि बादल बार- बार बरसे ,धीमे- धीमे बरसे तो धरती तृप्त हो जाती है। ये लड़कियाँ भी रेड लाइट होने पर बार -बार कुछ न कुछ प्राप्त कर खाती रहती हैं।

ख़ैर ग्रीन लाइट हुई। गाड़ी चल पड़ी I मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। मैं गोग्रास की उस छीना – झपटी से अपने को दूर नहीं कर पा रही थी। एक-एक दृश्य आँखों के आगे आता और मैं असंयत हो जाती।

रास्ता लंबा होता जा रहा था। मैं अपने आप में उलझ रही थी — गाय के लिए भोजन सबसे पहले ? निरीह बच्चों के लिए क्यों नहीं ? पहले किसके लिए रखा जाए ?

गाड़ी की तेज़ गति के साथ मन के घोड़े दौड़ रहे थे — गोमाता का भोजन — गोग्रास, भूखी बच्चियों का खाना — तीन दिन का बासी खाना…… ।

मेरे अंतर्मन में द्वंद्व चल रहा था। विचारों का बहुत बड़ा रंगमंच तैयार हो गया। यह रंगमंच किसी एक मुल्क का नहीं बल्कि विश्व -रंगमंच था। दुनिया के तमाम मुल्कों के बहुत सारे पात्र आ -आकर विचित्र भूमिका निभा रहे थे। पर्दा खुलता और रंगमंच पर खलबली मच जाती — कहीं भीख माँगता बचपन, कूड़े के ढेरों से कूड़ा बीनता बचपन। कहीं सड़क पर बसर करता होम लैस युवा, छीना -झपटी करता युवा। कहीं दुर्गंध भरे नालों के आस -पास बसर करती मानवता ,बासी जूठन में अपने प्राणों का आधार खोजती मानवता …… । और कहीं ……………और कहीं रेशमी अमीरी में इठलाते- इतराते पशु -पक्षी ,मखमली ऐश्वर्य में आराम फ़रमाते पशु -पक्षी ……. I

कितना अच्छा होता हम सब मिलकर पशु -पक्षियों की भाँति मनुष्यों की भी हिफ़ाज़त कर पाते ! कितना अच्छा होता हम सब दोनों के ही जीवन का मूल्य समझ पाते ! हम समझ पाते कि दोनों के जीवन से ही धरती में गति है ,प्रकृति में प्रवाह है और सृष्टि में सृजन है ।

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