रामलीला समापन की ओर बढ़ रही है और दिवाली की तैयारी शुरू हो रही है I मन के भीतर एक नदी -सी बह रही है I बचपन की यादों का प्रवाह थमने का नाम नहीं लेता I फिर वही बचपन का गाँव – कहीं हरे-भरे खेतों के बीच लकड़ी-पत्थर के छोटे-छोटे घर और कहीं ऊँची पहाड़ी पर पेड़ों के झुरमुटों के बीच से झाँकते सीमेंट के छोटे-बड़े घर I साफ-सफाई ,झाड़-पोंछ के साथ चूना-सफेदी का काम शुरू हो गया है I घर के भीतर की सारी मिट्टी झाड़ दी है I आँगन झाड़ने के लिए सिंवाई { एक प्रकार का पौधा } का हरा-भरा झाड़ू बन गया है I
बच्चों ने कहा ,‘‘पिताजी ! तुम हमारे लिए घोल तैयार कर दो I हम शाम तक पूरे घर की सफेदी कर देंगे I’’ पिताजी घोल तैयार कर देते I बस फिर क्या था ! बड़े बच्चे भीतर का ज़िम्मा ले लेते और छोटों को बाहर की दीवारें सौंप दी जातीं I शाम होते-होते पूरा घर सफेद रोशनी में जगमगाने लगता I अगले दिन सिंवाई के झाड़ू से आँगन झाड़ कर जोश-जोश में बहुत दूर तक ढलान का रास्ता साफ कर आते I आमा { दादी } ने घर भर में बच्चों की तारीफ क्या कर दी I फिर तो हम मिट्टी-गोबर का मिश्रण तैयार कर पूरा आँगन ही लीप डालते I
आज मेरी स्मृतियों में नदी-सी बह रही है I एक बार धीमे-से आँखें मूँद लेती हूँ तो बंद पलकों के अंदर देखती हूँ – भाई-बहन ऊपर से नीचे तक धूल-मिट्टी से सने हैं I सिर चूने की बूँदों से झलमला रहे हैं I हाथ-पैर गोबर-मिट्टी से लथपथ हैं I और फिर कानों को आँगन लीपने की आहट सुनाई देने लगती है – सन सन .. सर सर .. I घर-आँगन में सीमेंट के आने के साथ ही यह आवाज़ लोकजीवन से विलुप्त-सी हो रही है पर खुशी की बात है कि गाँव में कुछ नई सोच भी जन्म ले रही है I गाँव में कुछ नव -युवा हैं I उन्होंने चतुराई दिखाई I आमा-बूबू { दादा-दादी } से पूछ कर दो-तीन क्यारियों में फूल बो दिए I सोचा – फूलों की फसल अच्छी हुई तो दिवाली का खर्च निकल आएगा I भगवान ने ऐसी सुनी कि एक-एक क्यारी में गेंदे के फूलों का खजाना खुल गया I शरद की रातें एक एक फूल को अपनी ओस-बिंदुओं से सजातीं और सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही हजारों हजार गेंदे मुस्कुरा उठते I
आज गाँव में मेला-सा लगा हुआ है I कहीं खेतीहर माल्टे और संतरे तोड़कर टोकरियाँ भर रहे हैं और कहीं बच्चे बाज़ार के लिए झोलियों में भर-भर कर फूल तोड़ रहे हैं I अमरूदों की टोकरियाँ तैयार हो रही हैं I कल सुबह-सुबह सब लोग एक आस के साथ अपनी सारी पसीने की कमाई बाज़ार ले जाएँगे और वहाँ से बदले में लाएँगे ढेर सारी खुशियाँ – खील-खिलौने ,बताशे और मिठाइयाँ ,फुलझड़ियाँ-पटाखे और रंग-बिरंगी कागज की मालाएँ I लक्ष्मी-गणेश वाले कलेंडर भी आएँगे I सब लोगों के लिए एक-एक जोड़े के कपड़े भी आएँगे I

जीवन में या घर में इतनी सारी खुशियाँ यूँ ही नहीं आती थीं I कितना कितना सब्र करना पड़ता था I ठुलबा और कका { ताऊ-चाचा } तो सबके घरों में होते थे I ठुलबा हमेशा ही घर के बच्चों से कहते , ‘‘ अबकी संतरे-माल्टे की फसल बहुतअच्छी है I सारे पेड़ फलों से लदे हैं I रस भर रहा है I चाहे कितना भी मन हो ,तुम लोग कभी संतरे-माल्टे के पेड़ों को हाथ मत लगाना I दिवाली में बाज़ार ले जाएँगे I’’ कितना-कितना जी ललचाता था पर छोटे-छोटे बच्चों को अनचाहे ही त्याग और संयम की राह चलनी पड़ती थी I कौन नहीं जानता कि बच्चों की दुनिया तो खाने-पीने की ढेर सारी चीजों को लेकर ही होती है I सारी कल्पना ,सारी खुशियाँ निगोड़ी जीभ पर ही टिकी रहती हैं I बच्चों के मामले में देब कका ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी I सदा ही अपने घर के बच्चों को यही समझाया ,‘‘तुम लोग अच्छे-अच्छे अमरुद मत तोड़ना I तोते के अधखाए अमरूद बहुत मीठे होते हैं ,उन्हें खाना I भूलकर भी पेड़ों पर मत चढ़ना I जब भी जी करे ,ज़मीन में गिरे हुए फल खा लेना I तब बच्चे थे ,गुस्सा आता था I अब जब बड़े हुए तो किसान की ज़िंदगी भी समझ में आई और उसकी अंतर्मन की पीड़ा भी I मगर अब तो गाँव ही खत्म होने की कगार पर हैं I फिर क्या खेत-खलिहान क्या फसल I
आज की सुबह कुछ अलग सी-है I सूरज चमक रहा है I धूप खिल रही है I घर में हाट-बाज़ारों की ढेर सारी खुशियाँ आ गई हैं I दादी आम की पत्तियों के बंदनवार बना रही हैं I बच्चे फूलों की मालाएँ बना रहे हैं I रात में लक्ष्मी-गणेश की पूजा होगी I मन के भीतर एक नदी-सी बह रही है I यादों का प्रवाह बढ़ने लगता है तो आँखें बंद कर उसी रस में फिर से डूब जाती हूँ I दोपहर का समय है I मंदिर में नए कलेंडरों के साथ नए देवी -देवता आ गए हैं I फूलों की लड़ियाँ और बंदनवार जगमगा रहे हैं I बड़े-बूढ़े आराम कर रहे हैं I इतनी देर में बच्चों ने आँगन में छोटी-छोटी जगहें घेर ली हैं I पत्थर ,गत्ते और पटरे जमा कर लिए हैं I हर बच्चा अपने लिए एक छोटी-सी कुड़ी { घर } बनाएगा I फिर उसे फूल-मालाओं से सजाएगा I खुट खुट … खट खट … की आवाज़ आ रही है I बगल में बाली और मुन्नी ने अपनी कुड़ी दो मंज़िली बना ली है I गेंदे के फूलों से छज्जे सजा दिए हैं I हमने भी दो कुड़ी बना ली हैं I मैं गेरू लगा रही हूँ I दीदी ऐंपण {अल्पना } बना रही है I मैंने माँ से पूछा , ‘‘माँ ! मंदिर वाले पुराने कलेंडर हम ले लें ? कुड़ी सजाएँगे I’’ माँ बोली , ‘‘हाँ ले लो I’’ तुरंत ही पुराने कलेंडर बाहर आ गए I हमने कलेंडर से भगवानों की फोटो काट-काटकर कुड़ी सजा दी I देहरी भी सजा दी I अब बचपन बदल गया है I सारी जगहें मोबाइल ने घेर ली हैं I गाँव खाली होते जा रहे हैं I विजन गाँवों में सूनापन पसरा हुआ है I कहीं कहीं तो मनुष्यों की पद-चाप तक नहीं सुनाई देती I इसीलिए लोक-संस्कृति का भी लोप हो रहा है I छोटे-छोटे शिल्पकारों की खुट खुट खट खट की ये नन्हीं आवाज़ें मानो कहीं खो-सी गई हैं I लोक-जीवन से कलेंडर की फड़फड़ाहट विलुप्त हो गई है I
अंदर पूजा हो रही है I आम के पत्तों की झालर से सजी देहरी हँसती हुई-सी मालूम पड़ती है I द्वार-आँगन फूल-मालाओं से सजे खिलखिला रहे हैं I सज-धज देखकर ऐसा लगता है मानो रात की रानी फूलों के गजरे पहन अंधकार पर हँसती हुई गाँव की सैर के लिए निकल पड़ी हो I हर आँगन में और बच्चों की कुड़ी में मिट्टी के दीयों की झिलमिल रोशनी खेल रही है I झक-झक जलते दीये दूर से ऐसे लग रहे हैं जैसे किसी शिल्पी ने सैकड़ों जुगनुओं को एक पाँत में पिरो दिया हो I पूजा के बाद देहरी-पूजन होता है I घर की हर देहरी पर माथा टेक सब लोग अंजलि भर कर खील और फूल चढ़ाते हैं I
दिन भर के थके बच्चे गहरी नींद सो रहे हैं I ब्रह्म मुहूर्त में कहीं दूर से आती धम्म धम्म …हस्स हस्स …की आवाज़ वातावरण में गूँज रही है I ऊपर वाले ताऊजी के आँगन में ताई ,चाची और भाभियाँ ओखली में चिउड़े कूट रही हैं I आँगन में चूल्हा जल रहा है I उस पर लोहे का कढ़ाह चढ़ा है I कोई दो-तीन दिन से भिगोए हुए धानों को गाय के निखालिस घी में भून रहा है I कोई भुने हुए धानों को ओखली तक पहुँचा रहा है I भुने हुए धानों की खुशबू हवा में बहकर घर-आँगन को सुवासित कर रही है I खेतों को छूती हुई ,फूलों की डालियों में सरसरा रही है I धम्म धम्म …हस्स हस्स …अ हा हा धान कूटने की गति और यति कितनी मनमोहक लग रही है ! लय और ताल का सुंदर समन्वय संगीत की धुन सजा रहा है I मन को नई ऊर्जा और आत्मा को नई ऊष्मा मिल रही है I यह धुन अब कहीं लुप्तप्राय-सी हो गई है I
चिउड़े तैयार हो गए हैं I अन्न-लक्ष्मी से किसानों के घर में सुख-समृद्धि आ गई है I जीवन धनधान्य पूर्ण हो गया है I इसी खुशी में ग्रामीण कल सुबह इष्ट देवी-देवताओं के मंदिरों में चिउड़े चढ़ाएँगे I उसके बाद दादी सबके मस्तक पर चिउड़े चढ़ाकर आशीष देंगी –
सब दीर्घायु हों I
दूब की तरह सदा समृद्ध हों I
गंगा में पानी रहने तक सबको चिउड़े चढ़ते रहें I
xxxxx…..xxxxx…..xxxxx…..xxxxx…..xxxxx


टिप्पणी करे