जो सुबह गंगा नहाने को जाती
मंदिरों में जो पाती चढ़ाती
फूल-चंदन की थाली सजाती
जो पास आती मुझे ना जगाती
जो माथे को चूम चंदन लगाती
गाल पर बिखरे बाल वो सजाती
धीरे-से फूल-पाती चढ़ाती
जो थपकियाँ देती, मुझको सुलाती
वो मेरी दुनियाँ थी , मेरा जहां थी।
वो कोई और नहीं , वो मेरी माँ थी।।
जो रात-दिन काम कर सुख जुटाती
रातभर जाग मुझको सुलाती
रोटी एक ही जुटी तो भी हँसती
मुझको दे देती खुद भूखी रहती
जो सूखी बाती-सी जलती रही थी
स्नेह का तेल भरती रही थी
उसकी आँखें जो सपनों भरी थीं
ऊँची आशाएँ उनमें पली थीं
वो मेरी दुनियाँ थी , मेरा जहां थी।
वो कोई और नहीं , वो मेरी माँ थी।।
गाँव छोड़ मैं शहर आ पड़ी थी
सपने साकार करने चली थी
गीले मन से जिसने मुझको था भेजा
आँसुओं से था भीगा कलेजा
समय-समय की बात चार बरस बाद —
उससे मिलने की तड़प मुझमें जागी
अब शहर छोड़ गाँव को मैं भागी
जो मेरे आने की यूँ बाट जोहती
मुझसे मिलने के सपने सँजोती
वो मेरी दुनियाँ थी , मेरा जहां थी।
वो कोई और नहीं , वो मेरी माँ थी।।
उसके हाथों में मिट्टी सनी थी
वो घर के आँगन को लीपने चली थी
जो मुझको बाँहों में भरने को आई
माटी के हाथ थे हिचकिचाई
वो बोली – मिट्टी सने हाथ मेरे
कैसे गालों को सहलाऊँ तेरे
मैं बोली – माटी नहीं ,ये है सोना
छू के उजला करो मन का कोना
तुम कोई और नहीं , तुम मेरी माँ हो।
तुम मेरी दुनियाँ हो , मेरा जहां हो।।
फिर मेरे गालों को उसने छुआ था
मेरे मन में उजाला हुआ था
मेरा रोम-रोम अब खिल गया था
प्रभु से मिलने के का़बिल हुआ था
आसमां ने था देखा नज़ारा
चाँद-तारों ने जी भर सराहा
जिसके मिलने से रूह खिल गयी थी
रसभरी-सी नमी मिल गयी थी
वो मेरी दुनियाँ थी , मेरा जहां थी।
वो कोई और नहीं , वो मेरी माँ थी।।


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